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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप.... 231 कपोल रख कर पश्चाताप करना, आँसू आना आदि अनेक कार्य आर्तध्यान के बाह्य चिह्न कहलाते हैं।306
2. रौद्रध्यान का लक्षण और भेद
जो पुरुष प्राणियों (जीवों) को रुलाता है, रूद्र, क्रूर अथवा सब जीवों में निर्दयी कहलाता है, ऐसे पुरुषों में जो ध्यान होता है, उसे रौद्रध्यान कहते हैं।307 क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से अतिरंजित जीव के क्रूर भाव रौद्र है और इनसे सम्बन्धित तथा इसमें हर्षित होने वाली चित्त की वृत्ति रौद्रध्यान कहलाती है। रौद्रध्यान चार प्रकार का होता है
(क) हिंसा में आनन्द मनाना (ख) मृषावाद - झूठ बोलने में आनन्द मानना (ग) स्तेयानन्द - चोरी करने में आनन्द मानना (घ) संरक्षणानन्द - परिग्रह में आनन्द मानना। तत्त्वार्थ सूत्र में भी चार प्रकार का ध्यान कहा है(क) हिंसा (ख) अनृत (ग) स्तेय (घ) विषय संरक्षण।
इन चार की अपेक्षा से रौद्रध्यान चार प्रकार का ही है तथा यह अविरत और देशविरत गुणस्थान वाले (जीवों) में होता है। इन्हीं चारों भेदों को (क) हिंसानुबन्धी, (ख) मृषानुबन्धी, (ग) चौर्यानुबन्धी, (घ) संरक्षणानुबन्धी कहा गया है।
"अनुबन्ध" शब्द जो रौद्रध्यान के चारों भेदों में आया है, इसका अभिप्राय है - आत्म परिणामों की हिंसादि पापों में अतिशय लवलीनता, एक प्रकार का विशेष गठबन्धन, जो सदा ही जीव के भावों के साथ लगा रहे।308
(क) हिंसानन्द रौद्रध्यान - जीवों को मारने और बांधने आदि की इच्छा रखना, जीवों के अंगों-उपांगों को काटना, कष्ट देना तथा कठोर दण्ड अर्थात् यातनाएँ देना अर्थात् (पापायुक्त) क्रियाएँ करना हिंसा है। यह पहला हिंसानन्द रौद्रध्यान है।309.
(ख) मृषानन्द रौद्रध्यान का लक्षण - झूठ बोलकर लोगों को धोखा देने पर जो चिन्तन किया जाता है, उसे मृषानन्द रौद्रध्यान कहा जाता हैं। कठोर वचनों का प्रयोग करना आदि इस ध्यान के बाह्य चिह्न हैं। 10