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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण के लिए निरन्तर चिन्तन करना आर्त्तध्यान कहलाता है। वेदना उत्पन्न होने पर जो ध्यान होता है, वह वेदनोपगमोद्भव आर्तध्यान है। (प्रतिकूल वेदना से जो पैदा होता है)।299
इस प्रकार इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए, अनिष्ट वस्तु की अप्राप्ति के लिए, भोगोपभोग की इच्छा के लिए और वेदना दूर करने के लिए बार-बार चिन्तन किया जाता है। वह सब आर्त्तध्यान की कोटि में आता है। आर्त अर्थात् पीड़ित आत्मा वाले जीवों के द्वारा चिन्तन करने योग्य यह चार प्रकार का आर्तध्यान कहा जाता है।300 आर्तध्यान की स्थिति
यह ध्यान कषायादि प्रमाद से उत्पन्न होता है और प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान तक के जीवों में होता है।301
आर्तध्यान में लेश्याएँ और काल
चारों ध्यानों में आर्तध्यान में अत्यन्त अशुभ लेश्याएँ होती हैं। जैसे-कृष्ण, नील और कपोत इन लेश्याओं का सहारा लेकर यह ध्यान उत्पन्न होता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त का है और आलम्बन अशुभ है।302 आर्तध्यान में भाव और गति
पञ्चम पर्व में राजा दण्ड अत्यन्त विषय आसक्ति में लिप्त होने से, मायाचारी चेष्टाओं के कारण आर्तध्यान से तीव्र संक्लेश भावों से तिर्यञ्च आयु का बन्ध किया अर्थात् अपने भण्डारे में अजगर बना।303 आर्तध्यान में जीव का क्षायोपशमिक भाव होता है और उसकी गति तिर्यश्च की होती है। यह ध्यान खोटा है। कल्याण चाहने वाले जीवों को यह ध्यान छोड़ना चाहिए।304
आर्त्तध्यान के आन्तरिक चिह्न
परिग्रह में अत्यन्त आसक्ति होना, कुशीलरूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका करना, अत्यन्त लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना आर्तध्यान के चिह्न है।305 आर्त्तध्यान के बाह्य चिह्न
शरीर का कृश हो जाना, शरीर की कान्ति हीन हो जाना, हाथों पर