SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 229 समस्त विषयों में तृष्णा बढ़ाने वाली जो मन की प्रवृत्ति है, वह संकल्प नाम से जानी जाती है। इसलिए ऐसा संकल्प दुष्प्रणिधान कहलाता है और दुष्प्रणिधान से अपध्यान होता है।295 अत: चित्त की शुद्धि के लिए तत्त्वार्थ की भावना करनी चाहिए। ऐसा करने से ज्ञान की शुद्धि होती है और ज्ञान की शुद्धि से ध्यान की शुद्धि होती हैं296 1. आर्त्त ध्यान के लक्षण और प्रकार "आर्त' शब्द का अर्थ चिन्ता, पीड़ा, शोक, दुःख, कष्टादि है। इनके सम्बन्ध से जो ध्यान होता है, वह आर्त्तध्यान है। यह ध्यान चार प्रकार का होता (क) इष्ट वस्तु के न मिलने से (ख) अनिष्ट वस्तु के मिलने से (ग) निदान से (घ) रोगादि के निमित्त से।297 (क) इष्ट वस्तु के न मिलने से किसी इष्ट (प्रिय) वस्तु के वियोग होने पर उनके संयोग (प्राप्ति) के लिए मन में बार-बार उसी वस्तु की प्राप्ति का चिन्तन करना आर्तध्यान है। इष्ट वस्तुओं के बिना होने वाले दुःख के समय जो ध्यान होता है, वह इष्ट वियोगज ध्यान है। (ख) अनिष्ट वस्तु के मिलने से किसी अनिष्ट (अप्रिय) वस्तु के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए (छोड़ने के लिए) निरन्तर उस वस्तु का चिन्तन करना आर्तध्यान है। अनिष्ट वस्तु के संयोग के होने पर जो ध्यान होता है वह अनिष्ट संयोगज नामक आर्तध्यान है।298 (ग) निदान जो ध्यान भोगों की आकांक्षा (इच्छा) से होता है। वह निदान आर्तध्यान है। इष्ट भोगोपभोगपदार्थ के चिन्तन से जो ध्यान है, वह निदान प्रत्यय आर्तध्यान है। यह ध्यान दूसरे पुरुषों को भोगोपभोग की सामग्री देखने से संक्लिष्ट चित्त वाले जीव के होते हैं। (घ) रोग के निमित्त से उत्पन्न इस ध्यान में किसी वेदना से पीड़ित मनुष्य का उस वेदना को नष्ट करने
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy