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________________ 228 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 2. अप्रशस्त ध्यान जो ध्यान अशुभ परिणामों से होता है वह अप्रशस्त ध्यान कहलाता है। प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ध्यानों के दो-दो भेद हैं प्रशस्त ध्यान के दो भेद (क) धर्मध्यान (ख) शुक्ल ध्यान । अप्रशस्त ध्यान के दो भेद हैं - -- (ग) आर्त्तध्यांन (घ) रौद्र ध्यान | 286 इस प्रकार आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेद से ध्यान के चार भेद होते हैं । 287 ग्रहण करने और छोड़ने योग्य ध्यान आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों में से पहले दो ध्यान आर्त, रौद्र त्यागने योग्य हैं क्योंकि यह दोनों संसार में रुलाने वाले अर्थात् संसार में बार-बार जन्म-मरण के कारण है। धर्म और शुक्ल ये दोनों ध्यान ग्रहण करने, उपादेय योग्य है। ये दोनों शुभ और उत्तम ध्यान हैं । 288 जगत् के समस्त तत्त्व जो जिस रूप से अवस्थित हैं. उनमें संकल्प-विकल्प रूप से रहित उदारशीलता की भावना रखकर ध्यान का आलम्बन किया जाता है। 289 अथवा यह आत्मा संसारी और मुक्त रूप से जाना जाता है - इस प्रकार आत्मा तत्त्व का चिन्तन ध्यान करने वाले जीव के लिए उपयोग सिद्ध होता है । 290 जब चित्त विशुद्ध हो जाता है तब जीव बन्ध के कारणों को नष्ट कर लेता है, इनके नष्ट होने पर संवर और निर्जरा का आगमन हो जाता है और अन्त में जीव को मोक्ष हो जाता है । 291 जो पदार्थ जिस रूप में है उसका उसी रूप में योगी चिन्तन करता जाये तो वह समस्त पदार्थ ध्यान के आलम्बन हो जाते हैं। 292 यह स्पष्ट है कि इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं का चिन्तन करना यद्यपि योग के लिए ध्यान की कोटि में कहा जा सकता है लेकिन ये सब अनिष्ट ध्यान की कोटि में आते हैं। 293 संकल्प विकल्प के वशीभूत हुआ जीव समस्त पदार्थों की अच्छा (अनुकूल) अथवा बुरा ( प्रतिकूल) समझने लगता है। अतः उसमें राग-द्वेष की भावना उत्पन्न हो जाती है फिर वह कर्न बन्ध को प्राप्त कर लेता है । 294
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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