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आदिपुराण में पुण्य- पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 227
(च) ध्यान तप
किसी एक वस्तु में जब योगी चित्त का निरोध274 कर लेता है उसे ध्यान275 कहते हैं। मन की एकाग्र अवस्था का नाम ध्यान है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा - अपने विषय में (ध्येय में) मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।276
आ. भद्रबाहु ने भी यही बात कही है - कि चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना ध्यान है।77 यह ध्यान वज्रवृषभनाराच संहनन वाले व्यक्तियों के लिए अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही सम्भव हो पाता है। जब चित्त का परिणाम स्थिर हो जाये तब वह अवस्था ध्यान कहलाती है जिस अवस्था में मन चंचल रहता है उसे अनुप्रेक्षा भावना अथवा चित्त कहते हैं।278 यह ध्यान छद्मस्थ अर्थात् केवल ज्ञान से पहले की अवस्था या बारहवें गुणस्थानवी जीवों तक के होता है279 जिसकी वृत्ति अपने बुद्धि बल के अधीन होती है ऐसा ध्यान ही यथार्थ से ध्यान जा सकता है।280
ध्यान के पर्याय __योग, समाधि, धीरोध - बुद्धि की चंचलता रोकना, अन्तःसंलीनता मन को वश में करना आदि सब ध्यान के ही पर्यायवाचक है281 क्योंकि आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ का चिन्तन करता है उस परिणाम की ध्यान संज्ञा है अथवा जो परिणाम पदार्थों का चिन्तन करायें उस परिणाम को ध्यान कहते हैं।282 यद्यपि ध्यान ज्ञान का ही पर्यायवाची है और ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य पदार्थों को ही विषय बनाता है तथापि वह समष्टि रूप से देखा जाये तो ध्यान, तप, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य रूप व्यवहार को भी धारण कर लेता है।283
जिस प्रकार सुख-दु:ख क्रोधादि भाव चैतन्य के परिणाम कहे जाते हैं परन्तु वे सब उस चैतन्य से भिन्न रूप से अनुभव में आते हैं उसी प्रकार अन्त:करण का संकोच करने रूप ध्यान भी चैतन्य (ज्ञान) का परिणाम कहा जाता है तथापि वह उससे भिन्न रूप होकर प्रकाशमान होता है।284 ध्यान के भेदोपभेद
शुभ और अशुभ के चिन्तन से ध्यान के दो भेद होते हैं - 1. प्रशस्त ध्यान 2. अप्रशस्त ध्यान।285 1. प्रशस्त ध्यान - जो ध्यान शुभ परिणामों से किया जाता है वह
प्रशस्त ध्यान कहलाता है।