________________
226
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
(ख) विनय तप
विनय तप267 का अभिप्राय है - व्रत, विद्या, आयु आदि में अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना और उनकी उपेक्षा न करना आदि विनय तप है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप और वीर्यादि गुणों की विनय करना विनय तप कहलाता है।268
(ग) वैयावृत्य तप
वैयावृत्य तप269 का अर्थ है - धर्मसाधना में सहयोग करने वाली आहारादि वस्तुओं से शुश्रुषा करना वैयावृत्य है। वैयावृत्य से तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन हो जाता है। नि:स्वार्थ और आग्लान भाव से गुरु, ज्येष्ठ, साधु, वृद्ध, रोगी, नवदीक्षित, आचार्य, उपाध्यायादि की सेवा करता हुआ साधक महानिर्जरा और महापर्यवसान परम मुक्ति पद को प्राप्त करता है।270
(घ) स्वाध्याय तप
स्वाध्याय शब्द के निर्वचन कई प्रकार से किये गये हैं - "सु" - सुष्ठु-भली-भान्ति "आङ्' मर्यादा के साथ अध्ययन को स्वाध्याय कहा जाता है। "स्वयमध्ययनं स्वाध्यायः"-अपने आप का अध्ययन करना, निदिध्यासन चिन्तन मनन करना। स्वस्यात्मनोऽध्ययनम् - अपनी आत्मा का अध्ययन करना।
वस्तुतः स्वाध्याय तप आत्म कल्याणकारी और आत्मस्वरूप को बताने वाले ग्रन्थों का अध्ययन है। साथ ही उस ज्ञान को चिन्तन-मनन द्वारा हृदयंगम करना भी स्वाध्याय तप के अन्तर्गत है।27। स्वाध्याय से तत्त्वों के ज्ञान में परिपूर्णता आ जाती है।
(ङ) व्युत्सर्ग तप
व्युत्सर्ग में दो शब्द हैं - वि और उत्सर्ग। वि का अर्थ है विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग। व्युत्सर्ग (वि . उपसर्ग) का अभिप्राय है विशेष प्रकार से त्यागना। नि:संगता, अनासक्ति और निर्भयता को हृदय में रमाकर जीवन की देह (शरीर) की लालसा अथवा ममत्व का त्याय व्युत्सर्ग तप हैं।272 वन के प्रदेश, पर्वत लतागृह और श्मशान भूमि आदि एकान्त प्रदेशों में शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग करने वाले साधक व्युत्सर्ग नामक तप करते हैं। इसे सामान्य रूप से कायोत्सर्ग भी कह दिया जाता है। अहंकारत्व और ममत्व का त्याग करना भी व्युत्सर्ग नामक तप है।7