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________________ आदिपुराण म पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप.... 225 स्व-लीनता भी कह सकते हैं। सदा जागृत रहने वाले और इन्द्रियों को जीतने वाले, भोगोपभोग का त्याग करने वाले साधक ही प्रतिसंलीनता तप में लीन रहते हैं। साधक का बाधारहित एक स्थान में आत्म लाभ के लिए रहना प्रतिसंलीनता तप है। इसका दूसरा नाम विविक्तशय्यासन है।26। (च) कायक्लेश तप कायक्लेश तप का अभिप्राय है - वर्षा, शीत और ग्रीष्म इस तरह तीनों कालों में शरीर को क्लेश या कष्ट देना अर्थात् शारीरिक कष्ट सहना कायक्लेश तप है। कायक्लेश का अर्थ है शरीर को इतना अनुशासित कर लेना साध लेना कि उपसर्ग-परिषह सहन करते हुए भी स्थिर व अव्यथित रहना कायक्लेश तप है।262 2. आभ्यन्तर तप आभ्यन्तर तप को मुख्य अथवा श्रेष्ठ तप कहा जा सकता है। जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता हो तथा जो मुख्य रूप से बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को दिखाई न दें, वह आभ्यन्तर तप है। "आभ्यन्तरं चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षमणा हेतुत्वादिति" चित्तनिरोध की प्रधानता द्वारा कर्मक्षय करने वाली क्रियाएँ आभ्यन्तर तप हैं। अर्थात् आभ्यन्तर तप में चित्तविशुद्धि प्रमुख है।263 योग शास्त्र में भी कहा गया है-- "निर्जराकरणे बाह्यच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः" कर्मों की निर्जरा करने के लिये बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप श्रेष्ठ है। आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है।264 (क) प्रायश्चित्त तप (ख) विनय तप (ग) वैयावृत्य तप (घ) स्वाध्याय तप (ङ) व्युत्सर्ग तप (च) ध्यान तप।64 (क) प्रायश्चित्त तप प्रायश्चित्त दो शब्दों का योग है- प्राय:चित्त। प्रायः का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है उस पाप का विशोधन करना अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम प्रायश्चित्त है।265 प्रायश्चित्त तप का अभिप्राय धारण किए हुए व्रत में प्रमादजनित दोषों का जिससे शोधन किया जा सके, वह प्रायश्चित्त तप है।266
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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