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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
कर्मक्षपण नामक व्रत उपवास
इस तप में 148 उपवास करने पड़ते हैं। जिन व्रतों का क्रम इस प्रकार है -- 7 चतुर्थी, 3 सप्तमी, 36 नवमी, 1 दशमी, 16 एकादशी और 85 द्वादशी। कर्मों की 148 प्रकृतियों के नाश को उद्देश्यकर कर्मक्षपण नामक व्रत में 148 उपवास किये जाते हैं।251
(ख) ऊनोदरी तप (अवमोदर्य तप)
ऊन-कम, उदर-पेट, भूख से कम खाना ऊनोदरी है।252 इसका दूसरा नाम अवमोदर्य तप253 भी कहा गया है। उक्त अर्थ भोजन की अपेक्षा से है, किन्तु ऊनोदरी का वास्तविक अभिप्राय कम करना है। वह कमी भोजन, वस्त्र, उपकरण, मन, वचन, काय योगों की चपलता में भी की जाती है।254 (ग) वृत्तिपरिसंख्यान तप (भिक्षाचर्या तप)
__वृत्तिपरिसंख्यान तप255 का अभिप्राय है लालसा कम करना। विभिन्न वस्तुओं के प्रति अपनी इच्छाओं को कम या सीमित करना। साधु की अपेक्षा इसे भिक्षाचरी तप कहा गया हैं। साधु इस तप के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के अभिग्रह लेता है। जैसे आज इतने ही (संख्या 9 या 10) घरों में भिक्षा हेतु जाऊँगा। किन्तु श्रावक भिक्षा से भोजन प्राप्त नहीं करता। वह अपनी वृत्तियों को संक्षिप्त करता है। विविध वस्तुओं की ओर रहने वाली लालच वृत्ति को कम करना वृत्तिसंक्षेप है।256
(घ) रस परित्याग तप
__ आलस्य रहित होकर, दूध, घी, गुड़ादि रस वाले पदार्थों का त्याग करना ही रस परित्याग घोर तप है।257 इस तप का उद्देश्य स्वादवृत्ति पर विजय पाना है। रसना इन्द्रिय को स्वादिष्ट लगने वाली और इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाली भोज्य वस्तुओं का त्याग करना, रस परित्याग तप है।258 (ड) विविक्तशय्यासन259 तप (प्रतिसंलीनता तप)
विविक्तशय्यनासन तप या प्रतिसंलीनता का अर्थ है--अब तक जो इन्द्रिय, योग आदि बाह्य प्रवृत्तियों में लीन थे, उन्हें अन्तर्मुखी बनना, आत्मा की
ओर मोड़ना ही प्रतिसंलीनता तप है260 और परभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया ही वस्तुतः प्रतिसंलीनता है। इसलिए संलीनता को