________________
आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप..... 223
(ग) जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते हैं। (घ) उतनी भूमि दर्पणतल के समान स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है। (ङ) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघ कुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करते हैं।
(च) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं।
(छ) सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है।
(ज) वायु कुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है।
(ञ) कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं।
(ट) आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। (ठ) सम्पूर्ण जीवों को रोग आदिक की बाधायें नहीं होती हैं।
(ड) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है।
(ण) तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में व विदिशाओं में छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार से पूज्य द्रव्य हैं। यह सभी तीर्थंकरों भगवानों के 34 अतिशयों का वर्णन है। 248
श्रुत ज्ञान नामक उपवास व्रत
इस श्रुतज्ञान उपवास व्रत में 28, 11, 2, 88, 1, 14, 5, 6, 2 और एक इस प्रकार मतिज्ञान आदि भेदों की 158 संख्या है। इनका नाम श्रुतज्ञान क्रम इस प्रकार है कि मतिज्ञान के 28 अंगों के 11, परिकर्म के 2, सूत्र के 88, अनुयोग का 1 पूर्व के 14 चूलिका के 5 अवधिज्ञान के 6, मनः पर्यवज्ञान के 2 और केवलज्ञान का एक। इस प्रकार ज्ञान के इन 158 भेदों की प्रतीतिकर जो 158 दिन का उपवास किया जाता है, उसे श्रुतज्ञान उपवास व्रत कहते हैं। 249
,
दोनों तपों का फल
जिनेन्द्र गुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान नामक दोनों तपों का मुख्य फल केवलज्ञान की प्राप्ति और गौण फल स्वर्गादि की प्राप्ति करना है। 250