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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य म आदिपुराण
(च) अनुपमरूप (छ) नृप चम्पक के समान उत्तम गन्ध को धारण करना (ज) 1008 उत्तम लक्षणों का धारण (झ) अनन्त बल (ज) हितमित एवं मधुर भाषण।
ये दस स्वभावित अतिशय हैं जो तीर्थंकरों के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं।
2. केवलज्ञान के 11 अतिशय (क) अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता (ख) आकाश गमन (ग) हिंसा का अभाव (घ) भोजन का अभाव (ङ) उपसर्ग का अभाव (च) सबकी ओर मुख करके स्थित होना (छ) छाया रहितता (ज) निर्निमेष दृष्टि (झ) विद्याओं की ईशता (ञ) सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना। (ट) अट्ठारह महाभाषा तथा सात सौ क्षुद्रभाषा युक्त दिव्य ध्वनि।
इस प्रकार चार घाती कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान् आश्चर्य-जनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद प्रकट होते हैं।247
3. देवकृत 13 अतिशय (क) तीर्थंकरों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही
पत्र फूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है। (ख) कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने
लगती है।