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________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 221 5. निर्वाण कल्याणक अन्तिम समय आने पर भगवान योग निरोध द्वारा ध्यान में निश्चलता कर चार अघातियाँ कर्मों का भी नाश कर देते हैं और निर्वाण धाम को प्राप्त होते हैं। देव लोग निर्वाण कल्याणक की पूजा करते हैं। भगवान का शरीर कपूर की भान्ति उड़ जाता है। इन्द्र उस स्थान पर भगवान के लक्षणों से युक्त सिद्धशिला का निर्माण करता है।243 प्रतिहार्य - प्रतिहार्य का भाव है - द्वारपाल, अंगरक्षक, बोडि गार्ड, द्वारपाल का जो कर्म है वह प्रतिहार्य कहलाता है। तीर्थंकर भगवान के आठ प्रतिहार्य हैं। वैसे भगवान की सेवा में करोड़ों देव-देवियाँ सेवा में रहते हैं। परन्तु उनमें से आठ विशेष जो प्रतिहारें अर्थात् द्वारपालों की तरह अपनी इच्छा से साथ रहते हैं। उन प्रतिहारों का जो कर्म है वे प्रतिहार्य कहे जाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं।244 आठ प्रतिहार्य 1. अशोक वृक्ष, 2. तीन छत्र, 3. रत्न खंचित सिंहासन, 4. भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना, 5. दुन्दुभि, 6. पुष्पवृष्टि, 7. प्रभामण्डल, 8. चौसठ चरम युक्तता - यह आठ प्रतिहार्य कहे गये हैं।245 अतिशय - अति + शी + अच् – अति उपसर्गपूर्वक शी धातु से अच् प्रत्यय होने पर अतिशय शब्द बना। इसका अर्थ है आधिक्य, प्रमुखता, उत्कृष्टता, इन अर्थों में लिया गया है। यहां अतिशय से भाव उत्कृष्टता से है अर्थात् तीर्थंकर भगवान के गुणों की उत्कृष्टता बताने के लिए अतिशय शब्द का प्रयोग किया गया है।246 चौंतीस अतिशय 1. जन्म के 10 अतिशय (क) स्वेद रहितता (ख) निर्मल शरीरता (ग) दूध के समान धवल रुधिर (घ) वज्र ऋषभ नाराच संहनन (ङ) समचतुरस्र शरीर संस्थान
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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