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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
भगवान का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाये गये जल के 1008 क्लशों द्वारा अभिषेक करता है। तदनन्तर बालक को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान् उत्सव के साथ प्रवेश करता है। बालक के अंगूठे में अमृत भरता है और ताण्डव नृत्यादि अनेकों मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रकट कर देवलोक को लौट जाता है। दिक्कुमारी देवियाँ भी अपने अपने स्थानों पर चली जाती हैं।240 यह जन्म कल्याणक उत्सव है।
3. तपकल्याणक
__ कुछ काल तक राज्यविभूति का भोग कर लेने के पश्चात् किसी एक दिन कोई कारण पाकर भगवान को वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय ब्रह्म स्वर्ग से लौकान्तिक देव भी आकर उनको वैराग्यवर्द्धक उपदेश देते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषण से अलंकृत करते है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकी में भगवान स्वयं बैठ जाते हैं। इस पालकी को पहले तो मनुष्य कन्धों पर लेकर कुछ दूर पृथ्वी पर चलते हैं और देवता लोग लेकर आकाश मार्ग से चलते हैं। तपोवन में पहुँचकर भगवान वस्त्रालंकार का त्यागकर केशों का लुंचन कर देते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैं। अन्य भी अनेकों राजा उनके साथ दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र उन केशों को एक मणिमय पिटारे में रखकर क्षीर सागर में क्षेपण करता है। दीक्षा स्थान तीर्थ स्थान बन जाता है। भगवान बेला तेला आदि के नियमपूर्वक ऊँ नमः सिद्धेभ्यः कहकर स्वयं दीक्षा ले लेते हैं क्योंकि वे स्वयं जगद्गुरु हैं। नियम पूरा होने पर आहारार्थ नगर में जाते हैं और यथाविधि आहार ग्रहण करते हैं। दातार के घर पंचाश्चये (अतिशय) प्रकट होते हैं।241
4. ज्ञान कल्याणक
___ चार घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय) कर्मों का नाश हो जाने पर भगवान को केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्ट्य लक्ष्मी प्राप्त होती है। तब पुष्पवृष्टि, दुन्दुभि शब्द, अशोक वृक्ष, चामर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण सिंहासन
और दिव्य ध्वनि ये आठ प्रतिहार्य प्रगट होते हैं। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। जिसकी विचित्र रचना से जगत् चकित होता है। बारह सभाओं में यथास्थान देव, मनुष्य तिर्यंच मुनि आर्यिका, श्रावकश्राविका आदि सभी बैठकर भगवान के उपेदशामृत का पानकर जीवन सफल करते हैं।242