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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 219
1. दर्शन विशुद्धि 2. विनय सम्पन्नता 3. शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना 4. ज्ञान में सतत उपयोग 5. सतत संवेग 6. शक्ति के अनुसार त्याग 7. शक्ति के अनुसार तप 8 साधु समाधि 9 वैयावृत्त्य करना 10. अरहन्त भक्ति 11. आचार्य भक्ति 12. बहुश्रुत भक्ति 13. प्रवचन भक्ति 14. आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना 15. मोक्ष मार्ग की प्रभावना 16. प्रवचन वात्सल्य ।
ये सोलह कारण भावनाएँ तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं। 236
कल्याणक
जैनागम में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवनकाल के पाँच विशिष्ट उत्सवों का उल्लेख मिलता है। उन्हें पंच कल्याणक के नाम से जाना जाता है क्योंकि वे अवसर जगत् के लिए अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैं। जो जन्म से ही तीर्थंकर प्रकृति से लेकर उत्पन्न हुए हैं, उनके तो पाँच ही कल्याणक होते हैं। जिसके आरोप द्वारा प्रतिमा में असली तीर्थंकर की स्थापना होती है। 237
जो जिनदेव गर्भावतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल (तपकल्याणक), केवलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाणसमय, इन पाँच स्थानों (कालों) में पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त होकर महाऋद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रों से पूजित हैं । 238 पाँच कल्याणकों का वर्णन इस प्रकार है
1. गर्भकल्याणक भगवान के गर्भ में आने से छह मास पूर्व से लेकर जन्मपर्यन्त 15 मास तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माता की परिचर्या व गर्भ शोधन करती हैं। गर्भ वाले दिन से पूर्व रात्रि को माता को 16 उत्तम स्वप्न दीखते हैं जिन पर भगवान का अवतरण निश्चय कर माता-पिता प्रसन्न होते हैं। 239 यह गर्भकल्याणक उत्सव है।
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2. जन्म कल्याणक भगवान का जन्म होने पर देव भवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घण्टे आदि बजने लगते हैं और इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं जिससे उन्हें भगवान के जन्म का निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने को बड़ी धूमधाम से पृथ्वी पर आते हैं । इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी प्रसूतिगृह में जाती है, माता को माया निद्रा से सुलाकर उसके पास एक मायामयी पुतला लिटा देती हैं जो उनका सौन्दर्य देखने के लिए 1000 नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथी पर भगवान् को लेकर इन्द्र सुमेरु पर्वत की ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्डुक शिला पर
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