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________________ 218 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण आदिपुराण में वज्रनाभि मुनिराज अन्तिम समय शरीर और भोजन से ममत्व भाव छोड़ रत्नत्रय रूपी आराधना में लीन होकर कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करते है। वे प्रायोपगम संन्यास को धारण करते हैं। इसमें न वे स्वय शरीर की सेवा करते हैं न दूसरे किसी प्रकार उपचार करवाते हैं। इसमें वज्रनाभि मुनि नगर, ग्राम आदि स्थान से दूर जाकर किसी वन में चले जाते हैं। ऐसे मरण को प्रायेणापगमन मरण भी कहते हैं।131 जिनेन्द्र गुण सम्पत्ति और श्रुतज्ञान नामक दोनों अनशन तपों को प्रायः विधिपूर्वक करने से अशुभ कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। ये दोनों प्रकार के तपों का वर्णन दिगम्बर परम्परा में ही आया है।232 जिनेन्द्र गुण-सम्पत्ति व्रत जो व्रत तीर्थंकर नामक पुण्य-प्रकृति के कारणभूत सोलह भावनाएँ, पाँच कल्याणक, आठ प्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय इन त्रेसठ गुणों को उद्देश्य कर जो उपवास व्रत किया जाता है, उसे जिनेन्द्र गुण-सम्पत्ति कहते हैं।233 तात्पर्य यह है कि इस व्रत में जिनेन्द्र भगवान के तिरसठ गुणों को लक्ष्य कर तिरसठ उपवास किये जाते हैं। जिनकी विधि इस प्रकार है - सोलह कारण भावनाओं की सोलह प्रतिपदा, पंच कल्याणों की पाँच पंचमी, आठ प्रातिहार्यों की आठ अष्टमी और चौंतीस अतिशयों की बीस दशमी और चौदह चतुर्दशी इस प्रकार तिरसठ उपवास होते हैं। बीस दशमी में जन्म के 10 अतिशयों की दश दशमियाँ, केवलज्ञान के 10 अतिशयों की 10 दशमियाँ, केवल 14 अतिशयों की 14 चतुर्दशियाँ कुल मिलाकर चौंतीस अतिशय हुए। भावना कल्याण, प्रतिहार्य, अतिशय का लक्षण, भेदों सहित विस्तृत वर्णन आगे किया गया है।234 भावना भावना ही पुण्य-पाप, राग-वैराग्य, संसार व मोक्षादि का कारण है, अतः जीव को सदा कुत्सित भावनाओं का त्याग करके उत्तम भावनाएँ भानी चाहिए। सम्यक् प्रकार से भायी सोलह प्रसिद्ध भावनाएँ व्यक्ति को उत्कृष्ट तीर्थंकर पद में भी स्थापित करने को समर्थ है। अथवा वीर्यान्तराय क्षयोपशम चारित्र मोहोपशम क्षयोपशम और अंगोपांग नाम कर्मोदय की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा जो भायी जाती है, जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना है। जाने हुए अर्थ को पुनः पुनः चिन्तन करना भावना है।235 यह कारण-भावनाएँ सोलह हैं -
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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