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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 217 आचाम्लवर्धमान तप ___ जिस तप में आयम्बिल तप222 की वृद्धि हो उसे आयम्बिल223 वर्धमान कहते हैं। इसमें एक से लेकर सौ तक आयम्बिल किए जाते हैं। अमलों की संवृद्धि होने के कारण ही इसे आचाम्लवर्धमान तप कहते हैं। इस तप की विधि इस प्रकार है -
सर्वप्रथम आयम्बिल, फिर एक उपवास, फिर दो आयम्बिल, फिर एक उपवास, इसी तरह आगे बढ़ते-बढ़ते तीन आयम्बिल, एक उपवास, चार आयम्बिल एक उपवास इसी पद्धति से मध्य में एक उपवास करते हुए अन्त में सौ आयम्बिल एक उपवास करते हैं। यह तप चौदह वर्ष तीन महीने बीस दिन में सम्पूर्ण होते हैं।224
(ख) यावत्कथिक अनशन तप
यह निरवकांक्ष तप है, क्योंकि इसमें भोजन की इच्छा ही नही रहती, इसमें जीवन भर के लिए आहार का त्याग कर दिया जाता है। साधारण भाषा में इसे संथारा भी कहते हैं।225
आदिपुराण में यावत्कथिक अनशन तप को समाधिमरण226 या संन्यास मरण या संल्लेखना विधि227 भी कहा गया है। जीव की अतिवृद्ध या असाध्य रोग के आने पर या किसी भयानक उपसर्ग (कष्ट) आने पर अथवा दुर्भिक्ष आदि के होने पर साधक साम्यभावपूर्वक अन्तरंग कषायों का दमन करते हुए भोजन आदि का त्याग करके धीरे-धीरे शरीर को कृश करते हुए शरीर का त्याग करना ही समाधिमरण, सल्लेखना, सन्यास मरण है।228 आदिपुराण में सन्यास मरण तीन प्रकार का बताया गया है229 -
1. भत्त प्रत्याख्यान 2. इंगिनी मरण 3. प्रायोपगमन। 1. भत्त प्रत्याख्यान - जीवन भर के लिए अन्न-जल न खाने की
प्रतिज्ञा करना ही भत्त प्रत्याख्यान या भत्त प्रतिज्ञा है। इसका काल
अन्तमुहूर्त से लेकर बारह वर्ष तक का है। 2. इंगिनी मरण - इसमें साधक अपने शरीर की सेवा स्वयं करें किसी रोग के आने पर भी उस रोग का उपचार नहीं करते. ऐसा
मरण इंगिनी मरण कहा जाता है। 3. प्रायोपगमन - इस सन्यास-मरण में साधक न स्वयं शरीर की
सेवा, रोगादि का उपचार करते हैं न ही किसी दूसरे से करवाते हैं ऐसा मरण प्रायोपगमन मरण कहलाता है।-30