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________________ 216 कनकावली तप 2 12 कनकावली सुवर्णमय मणिरूप आभूषण विशेष का नाम है । जैसे सुवर्णमय मणियों का हार बहुमूल्य होता है, तथा आभूषण रूप होने से शरीर की शोभा का संवर्धक होता है। वैसे ही कनकावली तप आचरण में कठिनतर होता है तथा आत्मा में विशुद्धि और निर्मलता का सम्पादन करता हुआ अन्तःकरण को सुशोभित करने की महान् सामर्थ्य रखता है। 213 कनकावली तप पूर्ण करने में पाँच वर्ष नौ मास और अट्ठारह दिन लगते हैं। कनकावली तप की एक परिपाटी में एक वर्ष पाँच मास बारह दिन लगते है । 214 215 मुक्तावली तप 21 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण - मुक्तावली शब्द का अर्थ है - मोतियों का हार। जिस प्रकार मोतियों का हार बनाते समय मोतियों की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार जिस तप में उपवासों की स्थापना की जाए, उस तप को मुक्तावली तप कहते हैं । 216 मुक्तावली तप को पूर्ण करने में तीन वर्ष दस मास लगते हैं। प्रथम परिपाटी में 11 मास और 15 दिन लगते हैं। 217 - सिंहनिष्क्रीड़ित तप 218 सिंहनिष्क्रीडित तप में सिंह की क्रीड़ा की तरह चढ़ते-उतरते उपवासों की परिपाटी होती है। इस तप को सम्पूर्ण करने के लिए 2 वर्ष 28 दिन लगते हैं। इसकी आराधना इस प्रकार है पहले उपवास, फिर पारणा, फिर बेला (दो व्रत) फिर पारणा करके उपवास किया, फिर पारणा, फिर तेला आदि किया जाता है। 219 लघु सर्वतोभद्र तप सर्वतोभद्र तप 220 वह तप है, जिस तप की गणना करने पर, जिसके अंक सम अर्थात् बराबर हो, विषम न हो, जिधर से भी गणना की जाये, उधर से ही समान हो, उसे सर्वतोभद्र कहते हैं। यह सर्वतोभद्र तप दो प्रकार का होता है। प्रथम महत् दूसरा लघु । लघु सर्वतोभद्र तप में एक से लेकर पाँच अंक दिये जाते हैं। चारों ओर जिधर से चाहो, गणना करने पर 15 ही संख्या मिलती है। एक से पाँच तक सभी ओर से गणना करने से उसे लघुसर्वतोभद्र तप कहा जाता है। इस तप को सम्पूर्ण करने में तीन मास दस दिन लगते हैं। इसमें 75 उपवास और 25 दिन पारणे के होते हैं। 221
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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