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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
तपः-आत्मा की विशुद्धि करने वाली क्रिया तप है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कोई भी क्रिया चाहे वह अनशन हो, ऊनोदरी हो, विनयादि हो, यदि वह क्रिया कर्मक्षय तथा आत्म शुद्धि में सहायक नहीं बनती, आत्मा का अभ्युत्थान नहीं करती तो वह तप नहीं है। तप का आवश्यक उद्देश्य और लक्षण कर्मक्षय तथा आत्म विशुद्धि एवं आत्मोन्नति है। 96
तप के प्रकार
तप बारह प्रकार के हैं।97 परन्तु मुख्य रूप से तप के दो भेद ही हैं1. बाह्य तप 2. आभ्यन्तर तप।
1. बाह्य तप
जिससे ब्राह्य शरीर का शोषण और कर्मक्षय हो वह तप बाह्य है।।98
जिसमें शारीरिक क्रिया की प्रधानता होती है तथा जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा युक्त होने से दूसरों को दिखाई दे सके, वह बाह्य तप है।199
सरल शब्दों में देह तथा इन्द्रियों के निग्रह और नियंत्रण के लिए की जाने वाली वे सभी क्रियाएँ जो कर्मक्षय का कारण भी हों, बाह्य तप है। बाह्य तप बाहर दिखाई देने वाले तप है, उनका प्रभाव शरीर, इन्द्रियों आदि पर पड़ता दिखाई देता है, अतः इसे बाह्य तप कहा हैं।200
बाह्य तप बाहर दिखाई देने के कारण लोगों का ध्यान जल्दी आकर्षित होता है। इसके पालन में विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। महावीर स्वामी ने बाह्य तप के साथ आन्तरिक तप अधिक किया था। हमारा ध्यान आभ्यन्तर तप की ओर अधिक जाना चाहिए।20।
उपाध्याय यशोविजय कहते हैं -
तदेवं हि तपः कार्यं दानं यत्र नो भवेत्।
येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च॥202
तप ऐसा करना चाहिये जिसमें दुर्ध्यान न हो, मन-वचन-काय का बल नष्ट न हो और इन्द्रियों में क्षीणता न आए।
बाह्य तप के छह भेद होते हैं :203
(क) अनशन तप (ख) ऊनोदरी तप (ग) वृत्तिपरिसंख्यान तप (भिक्षाचर्या तप) (घ) रस परित्याग तप (ड) विविक्तशय्यासन तप (च) कायक्लेश तपा-04