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आदिपुराण में
पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप,.... 213
संवर नवीन कर्मों के आश्रव को रोकता है तो निर्जरा द्वारा पहले से आत्मा के साथ बन्धे हुए कर्मों का नाश होता है। जिस प्रकार तालाब के जल के आगमन द्वार को रोक देने पर सूर्य के ताप आदि से धीरे-धीरे जल सूख जाता है वैसे ही कर्मों के आस्रव को संवर द्वारा रोक देने पर तपादि कारणों से आत्मा के साथ पहले से बन्धे हुए कर्म शनैः शनैः क्षीण हो जाते हैं। इस दृष्टि से निर्जरा का अर्थ है-कर्म वर्गणा का आंशिक रूप से आत्मा से छूटना। 189 परिपाक से अथवा तप के द्वारा कर्मों का आत्मा से पृथक् होना निर्जरा है | 190
आत्मा के ऊपर जो कर्मों का आवरण है उसे तप, दान एवं व्रत के द्वारा क्षय किया जाता है। कर्मक्षय का हेतु होने से इनको भी निर्जरा कहा गया है। निर्जरा का साधन तप
तप की परिभाषा और उसके भेदोपभेद
जैन दर्शन में तप शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ में हैं। इसके विभिन्न अपेक्षा और विविक्षाओ से अनेक लक्षण ( परिभाषाएँ ) दिये गये हैं। जिससे " तप" का हार्द हृदयंगम हो जाये। राजवार्तिक में तप की परिभाषा - कर्मदहनात्तपः कर्म को दहन करने के कारण तप कहा जाता है। 191
" तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः । 192 अर्थात् जो आठ प्रकार के कर्मों को जलाए - तपाए, वह तप है। सर्वार्थसिद्धिकार ने
कर्मक्षयार्थं तप्यते इति तपः
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जो कर्मों के क्षय के लिए अथवा उनके दहन के लिए किया जाये वह तप है। मोक्ष पंचाशत में तप का लक्षण
तस्माद्वीर्यसमुद्रेकात् इच्छानिरोधस्तपो विदु: 194
इच्छाओं के निरोध को ही तप कहा गया है।
जिससे कर्मों की निर्जरा हो, ऐसी वृत्ति धारण करना तप कहलाता है। 195
वासनाओं को क्षीण (समाप्त) करने तथा समुचित आध्यात्मिक बल की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय और मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है वे सभी क्रियाएँ तप हैं।
इन परिभाषाओं से यह फलित होता है कि जिन क्रियाओं से कर्मों का क्षय हो और आत्मा की विशुद्धि हो वे सभी तप हैं। आत्मशोधिनी क्रिया