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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण वीतराग चारित्र भी कहा जाता है। यह चारित्र 11वें से 14वें तक चार गुणस्थानों में नहीं होता है।।87
समीक्षा
कर्म आने के द्वार को रोकना संवर है। आत्मा की राग द्वेष, मूलक अशुद्ध प्रवृत्तियों को रोकना संवर का कार्य है। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह, चारित्र ये षट् हेतु कहे गये हैं भाव संवर के। इन हेतुओं के द्वारा साधक आत्मा में आने वाले अशुभ कर्म पुद्गलो को रोककर उनकी निर्जरा करता है तथा नये आने वाले अशुभ कर्म पुद्गलों को रोकता है। ये सभी संवर के अन्तर्गत आते हैं। आगमों में मूलरूप से संवर के पाँच भेद कहे गये हैं। कर्मों का संवर किये बिना आत्मा मुक्त नहीं हो सकता। उनके नाम इस प्रकार कहे गये हैं।
(क) सम्यक्त्व संवर - जीवादि तत्त्वों के प्रति सच्ची श्रद्धा करना, सम्यक्त्व संवर है।
(ख) विरति संवर - पाप कर्मों से निर्लिप्त रहना ही विरति संवर है।
(ग) अकषाय संवर - क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का क्षय करना अकषाय संवर है।
(घ) अप्रमाद संवर - प्रमाद से होने वाले आस्रव का निरोध करना अप्रमाद संवर है।
(ङ) योग संवर - अशुभ योगों से होने वाले आस्रव को रोकना योग संवर है और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का निरोध करना भी योग संवर है।
इनके अतिरिक्त हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से निवृत्ति लेना, श्रोत--चक्षु आदि पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना, मन-वचन-काय का संयम रखना इत्यादि सभी संवर की कोटि में आते हैं।
निर्जरा नि उपसर्गपूर्वक निर्जरा शब्द "ज" धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होता है - जीर्ण होना, नष्ट होना। यह शब्द कर्मों के क्रमिक विनाश को इंगित करता है।
__“निजार्यते तथा निर्जरणमात्रं निर्जराइँ' - जिसके द्वारा कर्मों का एकदेश रूप से क्षय हो अथवा जो एकदेश रूप से कर्मों का क्षय होना है, वही निर्जरा है।।