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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप,... 211 6. चारित्र
बाह्य और आभ्यन्तर क्रिया के निरोध से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि विशेष को चारित्र कहते हैं। अथवा संसार बढ़ाने वाली क्रियाओं से विमुख होकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयत्न अथवा क्रिया चारित्र है 177 जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का त्याग करना ही चरित्र कहलाता है । 178 उस प्रयत्न से आत्मा के परिणामों में विशुद्धि आती है। इस विशुद्धि के तरतम भाव की अपेक्षा पाँच 1 79 प्रकार के चारित्र माने गये हैं। उनके नाम, इस प्रकार
हैं
(क) सामायिक चारित्र (ख) छेदोपस्थापन चारित्र (ग) परिहार विशुद्धि चारित्र (घ) सूक्ष्म सम्पराय चारित्र (ङ) यथाख्यात चारित्र ।
(क) सामायिक चारित्र 180 समस्त सावद्य योग (पाप क्रियाओं) अथवा राग द्वेषमूलक एवं विषय- कषाय बढ़ाने वाली क्रियाओं का, समभाव में स्थिति रहने के लिए सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है | 181
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(ख) छेदोपस्थापन चारित्र 182 प्रथम दीक्षा के उपरान्त जो जीवन भर के लिए व्रतों को ग्रहण होता है वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है । सामान्यतः इसे बड़ी दीक्षा भी कहा जाता है।
इसका दूसरा लक्षण यह भी है किसी दोष के कारण महाव्रत दूषित हो जाय तब नये सिरे से जो व्रतों का ग्रहण कराया जाता है, अथवा नई दीक्षा दी जाती है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है । इस दशा में पूर्व दीक्षा - पर्याय के वर्षों की गणना नहीं की जाती और ज्येष्ठ (बड़ा) साधु भी नवदीक्षित बन जाता 1183
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(ग) परिहार विशुद्धि चारित्र इस चारित्र में विशिष्ट प्रकार के तप प्रधान आचार का पालन किया जाता है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है । 84
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(घ) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र इस चारित्र में सिर्फ लोभ ( संज्वलन लोभ कषाय) जैसे हल्दी का रंग धूप आदि से शीघ्र ही छूट जाता है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है। इसकी गति देवलोक की है। इसमें लोभ का बहुत ही सूक्ष्म अंश शेष रह जाता है। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है, उससे नीचे के गुणस्थान में नहीं होता। 185
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(ङ) यथाख्यात चारित्र इस चारित्र में कषायों का अंश बिल्कुल भी नहीं होता । 186 इसमें आत्मा के शुद्ध निर्मल परिणाम होते हैं। इसलिए इसे