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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए भोजन की याचना करना ठीक नहीं। साधक मौन रहकर बिना खाये ही याचना परिषह सहन करते हैं।।66
(ण) अलाभ परीषह - संयम निर्वाह योग्य वस्तुएँ आहार तथा उपकरणादि प्राप्त न हो सकें तो मन में खिन्नता न लाना।।67
(त) रोग परीषह - किसी प्रकार की शारीरिक मानसिक व्याधि होने पर उसे पूर्वकृत कर्मविपाक मान कर समता से सहन करना।।68
(थ) तृण स्पर्श परीषह - तृण आदि की स्पर्श जन्य पीड़ा को समता से सहना। 69
(द) मल परीषह - मैले शरीर को देखकर ग्लानि न करना तथा स्नानादि की इच्छा न करना, पसीने से भीगे हुए शरीर से जुगुप्सा न करना।।70
(ध) सत्कार-पुरस्कार परीषह - सत्कार मिलने पर हर्षित और न मिलने पर खेद न करना, सम भावों में निमग्न रहना।।71
(न) प्रज्ञा परीषह - विद्वत्ता अथवा चमत्कारिणी बुद्धि होने पर अभिमान न करना।।72
(प) अज्ञान परीषह - अधर्म और भरपूर प्रयास करने पर भी ज्ञान न हो पायें तो चित्त में उदास न होना। मन में हीन-भाव न लाना।।73
(फ) अदर्शन परीषह - दीर्घकाल तक साधना (तपस्या) करने पर भी सूक्ष्म तथा अतीन्द्रिय ज्ञान या कोई विशिष्ट उपलब्धि न हो तो अपनी तपस्या को निष्फल समझकर श्रद्धा से विचलित न होना, अपितु श्रद्धा को दृढ़ रखना और साधना को उत्साह बनाये रखना। आगम में इसे "दर्शन परीषह" कहा है। जिसका तात्पर्य स्वर्ग नरक सम्बन्धी श्रद्धा अथवा दर्शन में डिगे नहीं। इस प्रकार इन परीषहों को समभावपूर्वक सहन करके इन्हें विजय करने से परीषहजय से संवर होता है।।74
परीषहों को जीतने का फल ।
शीत, उष्ण, क्षुधादि बाईस परीषह हैं। उन परीषहों को सहन करने से कर्मों की बहुत भारी निर्जरा होती है। इन परीषहों पर विजय प्राप्त करना ही कर्मों की निर्जरा का श्रेष्ठ उपाय कहा गया है। 75 षरीषहों को समभावपूर्वक सहन करना। परीषह जय से संवर होता है। 76