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________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 209 (घ) उष्ण परीषह - गर्मी से होने वाली वेदना को समतापूर्वक सहन करना उष्णपरिषह है। (ङ) दंशमशक परीषह - दंशमशक का अभिप्राय है - चींटी, मच्छर, साँपादि सभी प्रकार के जन्तु। इनके द्वारा पीड़ा दिये जाने पर मन में क्लेश अर्थात् दु:ख न मनाना, उन्हें समता से रहना दंशमशक परीषह है।151 (च) नग्नता (अचेल) परीषह - वस्त्र अत्यन्त जीर्ण शीर्ण हो जाने पर अब मैं अचेलक हो जाऊँगा - ऐसा सोचकर मन में खिन्नता न लाना। आचार्य इसे नग्न परीषह भी मानते हैं। अर्थात् नग्न रहना उत्तम तप है।।52 (छ) अरति परीषह - स्वीकृत मोक्ष मार्ग की साधना में अनेक कठिनाईयाँ आने पर भी मन में उद्वेग अथवा मार्ग के प्रति अरुचि भाव न होने देगा।153 (ज) स्त्री परीषह - सुन्दर स्त्रियों के हाव-भावों से मन में विकृति न आने देना, इसी प्रकार स्त्री साधिका को भी पुरुष के प्रति मन में विकार न लाना। भोगों से विरक्त हुए साधक स्त्री के अपवित्र शरीर को देखकर लुभायमान नहीं होते।।54 (झ) चर्या परीषह155 - "विहार चरिया मुणिणं पसत्था" - आगम में कहा है साधक एक स्थान पर ही अवस्थित न हो अपितु भ्रमणशील रहे। चर्या या निगमन करते समय खेद न करना। 56 (ब) निषधा-परीषह157 – ध्यानस्थ मुनि के समक्ष भय का प्रसंग आ जाये तब भी आसन से च्युत न होना अथवा भय का प्रसंग न आये तो भी आसन से नहीं डिगना।158 (ट) शय्या परीषह159 – कोमल, कठोर जैसी भी शय्या मिले, उसमें खेद न करना।160 (ठ) आक्रोश परीषह161 - कटुक कठोर, अप्रिय वचनों को सुनकर भी चित्त में क्रोध न लाना, आक्रोश परीषह है।162 (ड) वध परीषह163 - अपने को मारने पीटने वाले व्यक्ति पर रोष न करना, उस पीड़ा को सहन करना, उसे अपना उपकारी समझना। 64 __ (ढ) याचना परीषह - क्षुधा तृषा से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी दीनतापूर्वक याचना न करना अथवा दाता न दे तो अभिमान या आक्रोशपूर्ण वचनों द्वारा उसे प्रताड़ित न करना। 65
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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