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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
मार्ग से च्युत न होने और कर्मों के क्षयार्थ, जो सहन करने योग्य हो, वे परीषह है।।44
सर्दी गर्मी, भूख, प्यास, मच्छरादि की बाधाएँ आने पर आर्त्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से न हटना परिषह है। यद्यपि अल्प भूमिकाओं में साधक को परिषहों की पीड़ा का अनुभव होता है, परन्तु वैराग्य भावनाओं आदि के द्वारा वह परमार्थ से चलित नहीं होता।।45 ___आदिपुराण में उन परिषहों की संख्या बाईस146 कही गई है। परिषहों के नाम इस प्रकार हैं
(क) क्षुधा परीषह (ठ) आक्रोश परीषह (ख) तृषा परीषह (ड) वध परीषह (ग) शीत परीषह (ढ) याचना परीषह (घ) उष्ण परीषह (ण) अलाभ परीषह (ङ) दंशमशक परीषह (त) रोग परीषह (च) नग्नता परीषह (थ) तृणस्पर्श परीषह (छ) अरति परीषह (द) मल परीषह (ज) स्त्री परीषह (ध) सत्कारपुरस्कार परीषह (झ) चर्या परीषह (न) प्रज्ञा परीषह (ब) निषद्या परीषह (प) अज्ञान परीषह (ट) शय्या परीषह (फ) अदर्शन परीषह तत्त्वार्थ सूत्र में भी परीषहों की संख्या 22 ही कही गई है।।47
(क) क्षुधा परीषह - भोजन को तीव्र इच्छा होने पर भी सुज्झता (निर्दोष) आहार न प्राप्त हो तो उस भोजन की वेदना को समता से सहन करना क्षुधा परीषह कहलाता है। 48
(ख) पिपासा (तृषा) परीषह - बहुत अधिक प्यास लगने पर भी सचित (पापयुक्त) जल की मन में अभिलाषा न करना पिपासा परीषह है।।49
(ग) शीत परीषह - सर्दी से होने वाली वेदना को समतापूर्वक सहन करना शीत परिषह है।। 50