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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप,.... 207
(झ) निर्जरा अनुप्रेक्षा दु:खदुर्गति की जड़ को उखाड़ डालने, उपस्थित दुःख को मानसिक समाधान के साथ करने अथवा दुःखावह वासना का नाश करने के बारे में विचार करना अर्थात् कर्मों के क्षय करने के उपायों का उनके स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है। 1 32 तप के द्वारा भी कर्मों की भारी निर्जरा होती है। 133
(ञ) लोक अनुप्रेक्षा यह लोक चौदह राजु प्रमाण ऊँचा हैं। 1 34 लोक की शाश्वतता, अशाश्वतता आदि का चिन्तन करना। इससे तत्त्व ज्ञान विशुद्ध और दृढ़ होता है। साथ ही लोक के विषय में जो अनेक प्रकार की भ्रमित धारणाएँ फैली हुई हैं। उनका भी निरसन हो जाता है। श्रद्धा शुद्ध हो जाती है। 135 (ट) बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा संसार में सब लाभ सुर्लभ है परन्तु रत्नत्रय बोधि की प्राप्ति जीव को दुर्लभ है । 1 36 बोधि का अभिप्राय है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र | मनुष्य जन्म, सुशिक्षण एवं सुसंगति आदि दुर्लभ तो है ही परन्तु ये सब मिलने पर भी मनुष्य को अहंकार होने पर इन सबसे होने वाले लाभ को खो देता है, जिससे विशुद्ध सत्य की उपलब्धि नहीं हो पाती। बोधि प्राप्ति का चिन्तन करना बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा है । 137
5. परीषह
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(ठ) धर्म अनुप्रेक्षा
धर्म मार्ग से च्युत न होने और उसके अनुष्ठान में स्थिरता लाने के लिए ऐसा चिन्तन करना कि जिसके द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण हो सकता है। ऐसे सर्व गुण सम्पन्न धर्म का सत्पुरुषों ने उपदेश किया है। यह धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । 1 38 धर्म का बार-बार चिन्तन करना । 139 अनुप्रेक्षा का दूसरा नाम भावना है जिसका अर्थ होता है गहरा चिन्तन । यदि चिन्तन तात्त्विक और गहरा हो तो उससे राग द्वेषादि वृत्तियों का होना रुक जाता है। अतएव ऐसे चिन्तन का संवर के ( कर्म बन्ध निरोध के ) उपाय रूप से उल्लेख किया गया है। 140
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परिषह्यत इतिपरीषह : 14 1 जो सहन किये जाए, उसे परीषह कहते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है आत्म साधना में जितनी बाधाएँ, संकट या रुकावटें (शरीर
के अनुकूल या प्रतिकूल) आयें, उन रुकावटों को मन में आर्त्तध्यान अथवा संक्लेश रूप परिणाम किये बिना समतापूर्वक सहन करना परिषहजय है । 1 42
मुक्ति की साधना में संलग्न तथा कर्मों के नाश में तत्पर साधक के गुणों को परिषह कहा गया है) (43