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________________ 204 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 3. उत्तम आर्जव - कपटरहित होना, प्रतिक्षण अपनों और परायों से निष्कपटता का व्यवहार करना, आर्जव है। 4. उत्तम शौच - निर्लोभिता। आसक्ति और अनुराग का अभाव। यहाँ तक कि स्वयं के जीवन और आरोग्य के प्रति भी लोभ न रहे। अर्थात् सभी प्रकार की आसक्ति का त्याग।99 5. उत्तम सत्य - हित मित प्रिय वचन बोलना। सत्य में भाव, भाषा और काया तीनों की सरलता अपेक्षित होती है। समवायांग सूत्र में साधु के मूल गुणों में भाव सच्चे, करण सच्चे, जोग सच्चे अर्थात् भाव सत्य, करण सत्य और योग सत्य बताये गये हैं।100 भाव सत्य का अभिप्राय है – भावों में परिणामों में सदा सत्य का भाव रहे। करण सत्य का अभिप्राय करणीय कर्तव्यों को सम्यक् प्रकार से करना और योग-सत्य तो मन-वचन-काया की सत्यता है ही।10। 6. उत्तम संयम - सम्यक् रूप से यम उपरम (पीछे हटना) करना अर्थात् नियन्त्रण रखना ही संयम है।102 पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चार कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रियों को जीतना ही संयम है।103 व्रत और समितियों का पालन, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का त्याग और इन्द्रियों पर विजय यह सब जिसमें होते हैं उसमें नियम से संयम धर्म होता है।104 7. उत्तम तप - इच्छाओं का निरोध करना, कष्टों को सहन करना। 05 8. उत्तम त्याग - सुपात्र को दान देना। अथवा किसी वस्तु पर से अपना स्वत्व हटा लेना।106 सचित-अचित सभी प्रकार के परिग्रह से उपरति विरक्ति ही त्याग है।107 9. उत्तम आकिंचन्य - ममत्व का अभाव। अपरिग्रही होना।108 10. उत्तम ब्रह्मचर्य - नववाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पालन करना। काम-भोग विरति और आत्मा रमणता।। 09 इस सूत्र में इन सभी धर्मों को "उत्तम'' विशेषण से विशेषित किया गया है। "उत्तम" का अभिप्राय उत्कृष्ट है, अर्थात् यह सभी धर्म उत्कृष्ट शुद्ध
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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