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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप,.... 205 निर्मल भावों से ग्रहण, धारण किये जाने चाहिए ।
4. अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा का अर्थ है " पुनः पुनः चिन्तन करना । " सद्विचार, उत्तम भावनाएँ तथा आत्मचिन्तन इसी अनुप्रेक्षा के रूप हैं। " प्रेक्षा" शब्द का अभिप्राय है देखना और अनुप्रेक्षा का अभिप्राय है चिन्तन मननपूर्वक देखना, मन को उसमें रमाना, उन संस्कारों को दृढ़ करना। जिसका मन से (वचन से) चिन्तन किया जाये, वह अनुप्रेक्षा है । 1 10
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मोह ममत्व को नरम करने में भावनाओं का बल बहुत कार्य करता है। ऐसी भावनाएँ बारह हैं, जिन्हें अनुप्रेक्षा भी कहते हैं । । । । उनके नाम इस प्रकार
हैं
(क) अनित्य अनुप्रेक्षा (ख) अशरणानुप्रेक्षा ( ग ) संसारानुप्रेक्षा (घ) एकत्व अनुप्रेक्षा (ङ) अन्यत्व अनुप्रेक्षा (च) अशुचि अनुप्रेक्षा (छ) आस्रव अनुप्रेक्षा (ज) संवर अनुप्रेक्षा (झ) निर्जरा अनुप्रेक्षा (ञ) लोक अनुप्रेक्षा (ट) बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा (ठ) धर्म अनुप्रेक्षा ॥ 12
धन,
(क) अनित्य अनुप्रेक्षा संसार के सुख, इन्द्रियों के विषय, यौवन, आयु, बल और सम्पदाएँ शरीरादि सभी अनित्य कहे गये हैं अर्थात् हमेशा रहने वाले नहीं। 1 13
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(ख) अशरण अनुप्रेक्षा धन- - वैभव, ज्ञातिजन ( सगे-सम्बन्धी ) आदि संसार में कोई भी शरण (रक्षक) नहीं है । 14 मृत्यु, बीमारी आदि से कोई रक्षा नहीं कर सकता, ऐसा चिन्तन करना 15 इस भावना का मुख्य लक्ष्य है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी दूसरे की शरण की इच्छा न रखें 16 (केवल परमात्मा की ही शरण स्वीकार करें) अर्थात् मृत्यु, बुढ़ापा और जन्म भय हमेशा सामने होने पर उसे किसी की भी शरण नहीं। 117
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(ग) संसार अनुप्रेक्षा यह चतुर्गति ( नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव) संसार दुःख से भरा है। इस सम्पूर्ण संसार के सभी प्राणी दु:खी हैं, कहीं भी सुख नहीं है। देवों के सुख की भी अन्तिम परिणति दुःख ही है तब मनुष्य गति के सुख तो हैं ही किस गिनती में और पशुओं के दुःख तो प्रत्येक को दिखाई देते हैं तथा नरक गति तो घोर कष्टों की खान है, इस प्रकार चिन्तन, विचार करना चाहिए।'18 इस चिन्तन से व्यक्ति की आसक्ति सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति मिटती है । । 19 द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप विचित्र परिवर्तनों के कारण यह संसार अत्यन्त दुःखरूप है। 120