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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य मे आदिपुराण
संवर
सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अर्हत् पद प्राप्त करना जीव का परम लक्ष्य है। जब तक जीव का सम्बन्ध कर्म पुद्गलों के साथ बना रहता है तब तक जीव बन्धन मुक्त नहीं हो सकता है। अतएव कर्मपुद्गल का जीव में प्रवेश तथा तत्सम्बन्धी कारणों को रोकना परमावश्यक है 166
व्युत्पत्ति
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संवर शब्द “सम्” उपसर्गपूर्वक वृ धातु से बना है। " सम्” पूर्वक "वृ" धातु का अर्थ रोकना, अटकाना होता है। कर्म बन्ध रुक जाये वह संवर है। जिस उज्ज्वल आत्म परिणाम से कर्म बँधता रुक जाये वह उज्ज्वल परिणाम संवर है। इस प्रकार 'रुकना" " जिससे रुके" ये दोनों संवर कहलाते हैं। खु धातु का अर्थ बहना, टपकना होता है। अतः आश्रव का अर्थ कर्म पुद्गलों का आत्मा में बहना है। कर्म पुद्गलों के द्वारा इस बहाव की रुकावट को संवर कहते हैं। 67
संक्रियन्ते निरुध्यन्ते कर्म कारणानि येन भावेन स संवरः इस व्युत्पत्ति के अनुसार आत्मा के जिस परिणाम से आत्मा में प्रवेश करते कर्म रुक जाये अथवा कर्मों का आगमन जिससे बन्द हो जाये, उसे संवर कहते हैं। उदाहरणजब आत्मा अपने समिति, गुप्ति, व्रत, अनुप्रेक्षा आदि शुभ परिणामों से उन • आश्रवरूपी छेदों को बन्द कर देता है, रोक देता है, तो कर्मरूपी जल आत्मारूपी नौका में नहीं भर सकता और वह आत्म नौका सही सलामत संसार समुद्र को पार करके अपने चरम लक्ष्य मोक्ष में पहुँच सकती है। फिर वह डूबती नहीं168
लक्षण " संव्रियते संवरणमात्रं वा संवरः " अर्थात् जिसके द्वारा कर्मों का आगमन रोका जाए अथवा कर्मों के आगमन का रुकना ही संवर है। 69 जिस प्रकार नाव के छिद्र रुक जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, इसी प्रकार मिथ्यात्वादि का अभाव हो जाने पर जीव के कर्मों का संवर होता है। अर्थात् नवीन कर्मों का आस्रव नहीं होता है। 70
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आत्मा को बन्ध - भार से मुक्त करने का प्रयत्न प्रत्येक साधक धर्माचरण और साधनाओं द्वारा करता है, किन्तु वह संगृहीत बन्ध को उसी अवस्था में हल्का कर सकता है जबकि नवीन कर्मों के आगमन पर प्रतिबन्ध लगाये। इसी