________________
आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप..... 197
(ङ) अनाभौगिक मिथ्यात्व जैसे एकेन्द्रियादि जीव विचार से शून्य और विशेषज्ञान से रहित होते हैं, वैसे ही व्यक्ति के भी जब विचारजड़ हो जाता है। सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के बारे में कुछ भी सोचता नहीं है, तब वहाँ अनाभौगिक मिथ्यात्व होता है । 46
2. अविरति
अविरति पाप से निवृत्त होना ( हट जाना) विरति है निवृत्त नहीं होना अविरति है ।
अविरति का अर्थ है हृदय में आशा तृष्णा का अस्तित्व रहना, पाप कार्यों, आस्रव द्वारों, इन्द्रियों और मन के विषयों से विरक्त न होना । 47 अन्तरंग में निज परमात्मा स्वरूप की भावना से उत्पन्न परमसुखामृत में जो प्रीति, उससे विलक्षण तथा बाह्य विषय में व्रत आदि को धारण न करना सो अविरति है । 48
-
1
कभी मानव के कषायों का ऐसा तीव्र उदय होता है, जिससे न तो वह सकल चरित्र ग्रहण कर सकता है और न देश चारित्र ही । 19 यह अविरति आदिपुराण में 108 प्रकार की कही गई है। इसके एक सौ आठ प्रकार कहे गये हैं । 50
संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के भेद से तीन प्रकार का, योगों के भेद से तीन प्रकार का, कृत, कारित और अनुमत के भेद से तीन प्रकार का तथा कषायों के भेद से चार प्रकार का होता हुआ परस्पर मिलाने से 108 प्रकार की अविरत हुई।
-
3. प्रमाद
प्रमाद असावधानी को प्रमाद कहते हैं। आत्मकल्याण व सद्प्रवृत्ति में उत्साह न होना एवं अनादर का भाव होना प्रमाद है। 52 अपने कर्त्तव्य के प्रति उपेक्षा और प्राप्त साधनों का दुरुपयोग तथा सदुपयोग का ज्ञानाभाव ही प्रमाद 153
प्रमाद के प्रमुख भेद 5 और उत्तरभेद 15 हैं । 54
1. मद रूप, कुल, जाति, ज्ञान, तपादि पाँच प्रकार के मद का अभिमान ।
-
2-6 विषय पाँच इन्द्रियों (श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन) के विषयों में आसक्ति करना विषय प्रमाद है। 55