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________________ 196 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 1. मिथ्यात्व जिसमें देव के गुण न हों, उसमें देवत्व बुद्धि, गुरु के गुण न हों, उसमें गुरुत्व बुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि रखना मिथ्यात्व है। सम्यक्त्व ( श्रद्धान) से विपरीत होने के कारण यह मिथ्यात्व कहलाता है। 43 मिथ्यात्व का अर्थ है वस्तु का यथार्थ श्रद्धान न होना । जीवादि तत्त्वों में आस्था न रखना अथवा विपरीत श्रद्धा रखना मिथ्यात्व है। मिथ्याज्ञान को अविद्या कहते हैं और अतत्त्वों में तत्त्वबुद्धि होना मिथ्या ज्ञान कहलाता है। जो अरहन्त देव का कहा हुआ हो, वही तत्त्व कहा जाता है और अरहन्त भी वही हो सकता है जिसने चार प्रकार के घाती ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म को समाप्त कर लिया है। 44 मिथ्यात्व के पाँच प्रकार बताये गये हैं45 - (क) आभिग्रहिक मिथ्यात्व ( ख ) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व (ग) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व (घ) सांशयिक मिथ्यात्व (ङ) अनाभोगिक मिथ्यात्व | (क) आभिग्रहिक मिथ्यात्व जहाँ पाखंडी की तरह अपने माने हुए (असत्) शास्त्र के ज्ञाता होकर परपक्ष का प्रतीकार करने में दक्षता होती है, वहाँ आभिग्रहिक मिथ्यात्व होता है। - (ख) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व साधारण अशिक्षित लोगों की तरह तत्त्व विवेक किये बिना ही बहकावे में आकर सभी देवों को वंदनीय मानना ! सभी गुरुओं और धर्मों के तत्त्व की छानबीन किये बिना ही समान मानना, अनाभिग्रहिक है या अपने माने हुए देव, गुरु, धर्म के सिवाय सभी को निन्दनीय मानना, उनसे द्वेष या घृणा करना भी अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है। (ग) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व अन्तर से यथार्थ वस्तु को समझते हुए भी मिथ्या कदाग्रह ( झूठी पकड़) के वश होकर जमालि की तरह सत्य को झुठलाने या मिथ्या को पकड़े रखने का कदाग्रह करना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। - - (घ) सांशयिक मिथ्यात्व देव, गुरु और धर्म के सम्बन्ध में व्यक्ति की संशय की स्थिति बनी रहना कि 'यह सत्य है या वह सत्य है?' वहाँ सांशयिक मिथ्यात्व होता है।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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