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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 195
आस्त्रव
आस्रव का शब्दार्थ है, बहते हुए किसी पदार्थ, द्रवादि का आना, आगमन होना। जिस प्रकार झरोखे (खिड़की) से वायु और नाली से बहता हुआ जल आता है, उसी प्रकार मन, वचन, काया इन तीनों योगों से (अथवा किसी एक या दो से भी) कर्म वर्गणाओं का आत्मा में आना ही आस्रव है।
___ मन, वचन और काया के व्यापार (प्रवृत्ति या क्रिया) योग कहलाते हैं। इन योगों के द्वारा ही जीवों में शुभाशुभ कर्म चारों ओर से खिंचकर आते हैं। इसीलिए इनको (योगों को) ही आस्रव कहा गया।
आत्मा का पाप पुण्य रूप कर्मों को ग्रहण करना ही आस्रव है।37 पाप/पुण्य कर्मों के आत्मा तक पहुँचने का द्वार आस्रव है। मनुष्य मन, वचन, काया से प्रतिक्षण कर्मरत रहता है और आत्मा निरन्तर कर्मपुद्गल का आसव प्राप्त करती रहती है।
काय, वचन और मन की क्रिया योग है, वही आस्रव है। कर्म के सम्बन्धित होने के कारण शुभ योग पुण्य का आस्रव है और अशुभ योग पाप का आस्रव है।
आस्रव के प्रकार
आस्रव के दो प्रकार हैं10 - (क) भावास्रव (ख) द्रव्यास्रव।
(क) भावानव - जीव के द्वारा प्रतिक्षण मन से, वचन से, काय से जो कुछ भी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होती है, उसे जीव का भावास्रव कहते हैं।
(ख) द्रव्यानव - जिस प्रकार तेल से लिप्त मनुष्य के शरीर पर धूल चिपक कर संचित हो जाती है, यहाँ तेल से शरीर का लिप्त होना ही द्रव्यानव
भावास्रव के निमित्त से आकर्षित होकर जीव के प्रदेशों में प्रवेश करने वाली विशिष्ट जड़पुद्गल वर्गणाएँ द्रव्यास्रव हैं।41 आम्रव के भेदोपभेद
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच आस्रव के भेद बताये गये हैं।42