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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 191
3. शयन-पुण्य - आराम करने के लिये किसी को आसन या बिस्तर देना शयन पुण्य है।
4. लयन पुण्य - किसी को ठहरने के लिए मकान देना लयन पुण्य
5. वस्त्र पुण्य - अनुकम्पा भाव से किसी गरीब को वस्त्र देना भी वस्त्र पुण्य है।10
6. मन पुण्य - मानसिक भावों को पवित्र रखना मन पुण्य है।।।
7. वचन पुण्य - किसी को वाणी के द्वारा धैर्य एवं दिलासा देना गुणीजनों की प्रशंसा करना, हितभाव से मीठा बोलना और प्रभु-स्तुति एवं स्वाध्याय करना वचन पुण्य है।12
8. काय-पुण्य - गुणीजनों या दु:खियों की शरीर से सेवा करना काय-पुण्य है।13
9. नमस्कार पुण्य - विनय एवं नम्रता से किसी को नमस्कार करना, नमस्कार पुण्य है।14
पाप के प्रकार
उदित हुए अशुभ कर्म पुद्गलों और उनके कारण स्वरूप अशुभ कर्मों को पाप कहा जाता है। पुण्य की भाँति ही पाप की कर्मप्रवृत्तियाँ भी असंख्य हैं उनमें से प्रमुख अशुभ योग अठारह हैं। जिन्हें पाप-स्थानक भी कहते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं
1. प्राणातिपात 2. मृषावाद 3. अदत्तादान 4. अब्रह्मचर्य 5. परिग्रह 6. क्रोध 7. मान 8. माया 9. लोभ 10. राग 11. द्वेष 12. कलह 13. अभ्याख्यान 14. पैशून्य 15. परनिन्दा 16. रति-अरति 17. माया-मृषावाद 18. मिथ्यादर्शन। 1. प्राणातिपात - प्राणों का अतिपात - विनाश करना या प्रमाद -
(असतर्कता) वंश प्राणों का घात करना प्राणातिपात है।16 2. मृषावाद - मृषा का अर्थ है झूठ, मिथ्या, गल और वाद का अर्थ
है बोलना। अर्थात् झूठ बोलना मृषावाद है।17 3. अदत्तादान – बिना दी हुई वस्तु को चोरी की बुद्धि से उठा लेना
अदत्तादान है।।