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________________ पञ्चम अध्याय आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप, ऋद्धि, दान विमर्श पुण्य पाप आदिपुराण में पुण्य-पाप की अलग रूप से परिभाषा नहीं दी गई अपितु "सात" अथवा नौ तत्त्व" के कथन से पुण्य और पाप का उल्लेख किया है। अथवा ग्रन्थकार पूर्ववर्तियों द्वारा पुण्य-पाप परिभाषा को शब्दशः स्वीकार कर रहे प्रतीत होते हैं। अपने सामान्यार्थ में पाप और पुण्य क्रमशः अशुभ और शुभ कर्म हैं। आत्मा को जो शुभ की ओर अग्रसर करें और इष्ट की प्राप्ति करावें, वह पुण्य हैं। इसके विपरीत आत्मा को अशुभ की ओर अग्रसर करें और अनिष्ट की प्राप्ति करावें, यह पाप है। पुण्य और पाप शुभ और अशुभ कार्मण-पुद्गल हैं। ये अजीव कर्म परमाणु अपने स्वरूपानुसार शुभाशुभ परिणाम देते हैं और तदनुसार ही शुभाशुभ बन्ध भी बनते हैं। मन, वचन, काया की भली-बुरी प्रवृत्तियों द्वारा ही जीव शुभ अथवा अशुभ कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है। कर्मों के इस प्रकार विपाक उदित होते हैं वे ही पुण्य पाप के नाम से जाने जाते हैं। पुण्य के प्रकार पुण्योपार्जन के नौ साधन अथवा प्रकार हैं - ___ 1. अन्न पुण्य 2. पान पुण्य 3. शयन पुण्य 4. लयन पुण्य 5. वस्त्र पुण्य 6. मन पुण्य 7. वचन पुण्य 8. काया पुण्य 9. नमस्कार पुण्य। 1. अन्न पुण्य - दया-बुद्धि से किसी को भोजन देना पुण्य है।' 2. पान पुण्य - दया-बुद्धि से किसी प्यासे की प्यास बुझाना पुण्य है।'
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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