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________________ 180 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण निश्चयदृष्टि से काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की आवश्यकता नहीं है। उसे जीव और अजीव के पर्यायरूप मानने से ही सभी कार्य व सभी व्यवहार सम्पन्न हो सकते हैं। व्यवहार की दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है और उसे पृथक् द्रव्य गिनाया गया है एवं उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है। . इस प्रकार आदिपुराण में काल-द्रव्य को अन्य पाँच द्रव्यों के समान पर्याप्त रूप में स्थान दिया गया है जिसे मुहूर्त,163 एक सागर,164 सात सागर,165 दस सागर 66 सोलह सागर,167 बीस सागर,168 तीस सागर,169 तेतीस सागर'70 और छयासठ सागर,171 दस क्रोडाकोड़ी,172 बीस क्रोड़ाक्रोड़ी73 काल परिमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार पाठकों को यह बतलाने की कोशिश कर रहा है कि काल द्रव्य मात्र एक व्यवहार को ध्यान में रखकर सापेक्ष न होकर बल्कि एक स्वतन्त्र और कूटस्थ द्रव्य है। संदर्भ आ.पु. 24.132; त.सू. 5.1 वि. - आ.पु. 24.133 - आ.पु. 24.133 1. आ.पु. 24.131 2. त.सू. 5.1 3. द्रव्यं.सं. टी. 15.50; पंचास्ति.त.वृ. 2.124-125 4. अजीवलक्षणं तत्त्वं पञ्चधैव प्रपञ्च्यते। धर्माधर्मावथाकाशं कालः पुद्गल इत्यपि।। - 5. जीवपुद्गलयोर्यत्स्याद् गत्युपग्रहकारणम्। 6. आ.पु. 24.133 (टीका) 7. धर्म द्रव्यं तदुद्दिष्टमधर्मः स्थित्युपग्रहः। गतिस्थितिमतामेतौ गतिस्थित्योरुपग्रहे। धर्माधमौ प्रवर्तेते न स्वयं प्रेरको मतौ।। यथा मत्स्यस्य गमनं बिना नैवाम्भसा भवेत्। न चाम्भः प्रेरयत्येनं तथा धर्मास्त्यनुग्रहः।। तरुच्छाया यथा मर्थं स्थापयत्यर्थिनं स्वतः। न त्वेषा प्रेरयत्येनमथ च स्थिति कारणम्।। तथैवाधर्मकायोऽपि जीवपुद्गलयोः स्थितिम्। निवर्तयत्युदासीनो न स्वयं प्रेरकः स्थितेः।। 8. त.सू. (के.मु.) 5.1 (वि.) 9. जीवादीनां पदार्थानामवगाहनलक्षणम्। यत्तदाकाशमस्पर्शममूर्त व्यापि निष्क्रियम्।। 10. आकाशस्यावगाह: - आ.पु. 24.134-137, - आ.पु. 24.138 - त.सू. 5.18
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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