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आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श
है । इस दृष्टि से जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय परिणमन ही उपचार से काल कहा जाता है, अतः जीव और अजीव को "काल' द्रव्य जानना चाहिए वह पृथक् तत्त्व नहीं है। 162
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द्वितीय मत के अनुसार काल एक सर्वथा स्वतन्त्र द्रव्य है। उनका स्पष्ट आघोष है कि जीव और पुद्गल जैसे स्वतन्त्र द्रव्य हैं। उसी प्रकार काल भी है, अतः काल को जीव आदि की पर्याय प्रवाह रूप न मानकर पृथक् तत्त्व मानना चाहिए।
श्वेताम्बर आगम साहित्य भगवती, उत्तराध्ययन, जीवाभिगम, प्रज्ञापना आदि में काल सम्बन्ध में दोनों मान्यताओं का उल्लेख है। इसके पश्चात् आचार्य उमास्वाति, सिद्धसेन, दिवाकर, जिनभद्रगणी, क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय जी, विनयविजय जी, देवचन्द्र जी, आदि श्वेताम्बर विज्ञों ने दोनों पक्षों का उल्लेख किया है किन्तु दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, भट्टारक अकलंकदेव, विद्यानन्द स्वामी आदि ने केवल द्वितीय पक्ष को ही माना है। वे काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं।
प्रथम मत का अभिमत यह है कि समय, आवलिका, मुहूर्त्त, दिन-रात आदि जो भी व्यवहार काल साध्य हैं वे सभी पर्याय-विशेष के संकेत हैं। पर्याय, यह जीव- अजीव की क्रिया विशेष हैं। जो किसी भी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के अतिरिक्त होती है, अर्थात् जीव- अजीव दोनों अपने-अपने पर्याय रूप में स्वतः ही परिणत हुआ करते हैं अतः जीव - अजीव के पर्याय- पुँज को ही काल कहना चाहिए। काल अपने आप में कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है।
द्वितीय मत का अभिमत यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं, उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं वैसे ही जीव और अजीव में पर्याय- परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्त कारण रूप काल द्रव्य को मानना चाहिए।
उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है । वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व ये काल के उपकारक हैं। इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। उसका व्यवहार पदार्थों की स्थिति के लिए होता है। समय आवलिका रूप काल जीव- अजीव से पृथक् नहीं हैं, उन्हीं की पर्याय हैं।