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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
(घ) सुषमा-दुःषमा - तीसरा आरा समाप्त होने पर चौथा सुषमा दुःषमा आरा दो क्रोड़ाक्रोड़ी सागर का आरम्भ होता है। इसके 84 लाख पूर्व, 3 वर्ष और साढ़े आठ महीने बाद 24 वें तीर्थंकर मोक्ष चले जाते हैं। 12वें चक्रवर्ती की आयु पूर्ण हो जाती है। करोड़ पूर्व का समय व्यतीत होने के बाद कल्पवृक्षों की उत्पत्ति होने लगती है। उन्हीं से मनुष्यों और पशुओं की इच्छापूर्ण हो जाती है।।51 तब असि, मसि, कृषि आदि के काम धन्धे बन्द हो जाते हैं। युगल उत्पन्न होने लगते हैं। बादर अग्निकाय और धर्म का विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार चौथे आरे में सब मनुष्य अकर्मभूमिक बन जाते हैं। वर्ण आदि की शुभपर्यायों में वृद्धि होती है।152
(ङ) सुषमा - तत्पश्चात् सुषमानामक तीन क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का पाँचवां आरा लगता है। इसका विवरण अवसर्पिणीकाल के दूसरे आरे के समान हैं। वर्णादि की शुभ पर्यायों में क्रमशः वृद्धि होती जाती हैं।153
(च) सुषमा-सुषमा - फिर चार क्रोडाकोड़ी सागरोपम का छठा आरा लगता है। इसका विवरण अवसर्पिणी काल के प्रथम आरे के समान है। वर्ण आदि की शुभ पर्यायों में अनन्तगुणी वृद्धि होती है। ___ इस प्रकार 10 क्रोडाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणीकाल और 10 क्रोडाकोड़ी सागरोपम का उत्सर्पिणी काल होता है। दोनों मिलकर 20 क्रोडाकोड़ी सागरोपम का एक काल चक्र कहलाता है।।54
काल परिमाण तालिका पृथक्त्वपल्य
पृथक्त्व'55 से अभिप्राय है तीन से ज्यादा और नौ से कम संख्या को पृथक्त्व कहते हैं। (क) सूक्ष्मात्सूक्ष्मो विभाज्य __ = 1 काल = 1 समय असंख्य समय
= | आवलिका 1, 67, 70, 216 आवलिका = 1 मुहूर्तः तीस मुहूर्त की
= | अहोरात्र दो पक्ष का
= 1 मास
बारह मास का
= 1 वर्ष