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आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श
(ख) दुःषमा इसके अनन्तर दूसरा दुःषमा आरा भी 21,000 वर्ष का होता है और वह भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन आरम्भ होता है। इस आरे के प्रारम्भ होते ही पाँच प्रकार की वृष्टि सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में होती है।
यथा
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1. सात दिन-रात तक निरन्तर पुष्कर नामक मेघ वृष्टि करते हैं इससे धरती की उष्णता दूर हो जाती है।
2. इसके पश्चात् सात दिन वर्षा बन्द रहती है। फिर सात दिन पर्यन्त निरन्तर दुग्ध के समान " क्षीर" नामक मेघ बरसते हैं। जिससे सारी दुर्गन्ध दूर हो जाती है। फिर सात दिन तक वर्षा बन्द रहती है।
3. फिर " घृत" नामक मेघ सात दिन रात तक बरसते रहते हैं। इससे पृथ्वी में स्निग्धता आ जाती है।
4. फिर लगातार सात दिन-रात तक निरन्तर अमृत के समान "अमृत" नामक मेघ बरसते हैं। इस वर्षा से 24 प्रकार के धान्यों के तथा अन्यान्य सब वनस्पतियों के अंकुर जमीन में से फूट निकलते हैं।
5. फिर सात दिन खुला रहने के बाद ईख के रस के समान " रस" नामक मेघ सात दिन रात तक निरन्तर बरसते हैं। जिससे वनस्पति में मधुर, कटुक, तीक्ष्ण, कषैले और अम्ल रस की उत्पत्ति होती है।
निसर्ग की यह निराली लीला देखकर बिलों में रहने वाले वे मनुष्य चकित हो जाते हैं और बाहर निकलते हैं। मगर वृक्षों और लताओं के पत्ते हिलते देखकर भयभीत हो जाते हैं और फिर अपने बिलों में घुस जाते हैं। फिर निर्भय होकर वृक्षों के पास पहुँचने लगते हैं। फिर फलों का आहार करने लगते हैं। फल उन्हें मधुर लगते हैं और तब से वे माँसाहार का परित्याग कर देते हैं। माँसाहार से उन्हें इतनी घृणा हो जाती है कि वे जातीय नियम बना लेते हैं कि 'अब जो माँस का आहार करे, उसकी परछाई में भी खड़ा न रहना"। पाँचवें आरे के समान सब व्यवस्था स्थापित हो जाती है। वर्णादि की शुभ पर्यायों में अनन्तगुणी वृद्धि होती है। 149
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(ग) दुःषमा - सुषमा यह आरा 42000 वर्ष कम एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम का होता है। इसकी रचना अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के समान समझनी चाहिए। इसके 3 वर्ष और 8 मास 15 दिन व्यतीत होने के बाद प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। पहले कहे अनुसार इस आरे में 23 तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेवादि होते हैं । पुद्गल की वर्णादि शुभ पर्यायों में अनन्तगुणी वृद्धि होती है। 50
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