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________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण घटते घटते 500 धनुष का और आयु एक करोड़ पूर्व की रह जाती है। इस समय के मनुष्य दिन में एक बार भोजन ग्रहण करते हैं। 23 तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव भी इस आरे में होते हैं। 144 174 (ङ) दुःषमा काल का स्वरूप चौथा काल जब समाप्त होता है तो 21000 वर्ष का पाँचवाँ दुःषमा काल आरम्भ हो जाता है। इस काल में अधिक दुःख होता है। इसलिए इस काल का नाम दुःषमा पड़ा। चौथे काल की अपेक्षा वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, शरीर परिमाण, मनुष्यों की आयु क्रमशः घटते घटते घट जाती हैं। मनुष्यों की आयु 125 वर्ष की, शरीर की अवगाहना सात हाथ की रह जाती हैं। दिन में दो बार आहार करने की इच्छा होती है। 145 - इस काल में धर्म- ध्यान धीरे-धीरे क्षय हो जाता है। लोगों की भावना समाप्त हो जाती है अर्थात् प्रत्येक वस्तु का पतन हो जाता है। 146 (च) दुःषमा - दुषमा का स्वरूप पाँचवें आरे की पूर्णाहुति होते ही 21000 वर्ष का छठा आरा आरम्भ होता है। इस काल में दुःख ही दुःख अर्थात् बहुत ही अधिक दुःख क्षणिक मात्र भी सुख नहीं होता । दुःखों की बहुलता होने से इस काल का नाम दु:षमा - दुःषमा पड़ा। इस काल में मनुष्यों के लिए बिलें होती हैं। मनुष्य बिलों में रहते हैं। कुल बिलें 72 होती हैं। छठे काल में पहले की अपेक्षा वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, शुभ पुद्गलों की पर्याय में अनन्तगुणा हानि हो जाती है। आयु घटते घटते 20 वर्ष की, शरीर की ऊँचाई केवल एक हाथ की रह जाती है। अपरिमित भोजन की इच्छा होती है। रात्रि में शीत और दिन में ताप अत्यन्त प्रबल होती है। इस कारण वे मनुष्य बिलों से बाहर नहीं निकल सकते। केवल सूर्योदय के समय और सूर्यास्त के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) ही बाहर निकल पाते हैं। इस काल के मनुष्य दीन, हीन, दुर्बल, दुर्गन्धित, रुग्ण, अपवित्र, नग्न आचार-विचार से हीन और माता, भगिनी, पुत्री आदि के साथ संगम करने वाले होते हैं। छह वर्ष की स्त्री सन्तान को जन्म देती है, कुतिया और शूकरी के समान बहुत परिवार वाले और महाक्लेशमय होते हैं। धर्मपुण्य से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी सम्पूर्ण आयु व्यतीत करके नरक या तिर्यञ्च गति में अतिथि बन जाते हैं। 147 2. उत्सर्पिणी काल के भेदों का स्वरूप (क) दुःषमा दुःषमा उत्सर्पिणी काल का पहला दुःषमा - दुःषमा आरा 21000 वर्ष का, श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन आरम्भ होता है, इसका वर्णन अवसर्पिणी काल के छठे आरे के समान ही समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि इस काल में आयु और अवगाहनादि क्रमशः बढ़ती जाती है। 48 -
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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