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आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श
(ग) सुषमा-दुःषमा काल का स्वरूप - द्वितीय काल समाप्त होने पर तीसरे काल के आरम्भ होने पर मनुष्य के बल, कल्पवृक्ष का प्रभाव, शरीर की ऊँचाई आदि और भी घटने लगती है। इस तीसरे काल में लोगों को अधिक सुख और क्षणिक दु:ख होता था अर्थात् ज्यादा सुख और थोड़ा दु:ख होने के कारण इस काल का नाम सुषमा-दु:षमा पड़ा। इसकी स्थिति दो क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर की थी।138 उस समय भारतवर्ष में मनुष्यों की स्थिति एक पल्य की थी। उनका शरीर एक कोश ऊँचा था और एक दिन के पश्चात आँवले के दाने के समान भोजन लेते थे।139 तीसरा काल व्यतीत होने में पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया। तब कल्पवृक्षों की सामर्थ्य घट गयी। कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यन्त मन्द हो गया। 40 तदनन्तर किसी समय आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय आकाश के दोनों भागों में अर्थात् पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चमकीला चन्द्रमा और पश्चिम में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलायी पड़ा।41
पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रह जाता है। इस काल में पन्द्रह कुलकर उत्पन्न होते हैं। यह कुलकर अपने-अपने समय में प्रभावशाली और विद्वान् मनुष्य होते हैं। तीसरा आरा समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और आठ महीने जब शेष रह जाते हैं, तब अयोध्या नगरी में पन्द्रहवें कुलकर से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म होता है। काल के प्रभाव से, जब कल्पवृक्षों से कुछ भी प्राप्ति नहीं होता, तब मनुष्य क्षुधा से पीड़ित और व्याकुल होते हैं। तो भगवान ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि आदि सभी प्रकार के कार्य प्रजा को सिखाये। ज्यों-ज्यों कुटुम्ब की वृद्धि होती जाती है त्यों-त्यों ग्राम-नगर आदि की वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार भरतक्षेत्र में आबादी हो जाती है।। 42
सम्पूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था हो चुकने के अनन्तर तीर्थंकर राज्य-ऋद्धि का परित्याग कर देते हैं, और संयम ग्रहण करके, तपश्चर्या करके चार घातिया कर्मों का सर्वथा क्षय करके केवलज्ञानी होकर तीर्थ की स्थापना करते हैं। इस प्रकार लौकिक और लोकोत्तर कल्याण का जगत् को मार्ग प्रदर्शित करके आयु का अन्त होने पर मोक्ष पधारते हैं। 43
(घ) दुःषमा-सुषमा का स्वरूप - तीसरा काल समाप्त होते ही 42000 वर्ष कम एक करोड़ सागरोपम का चौथा दुःषमा-सुषमा अर्थात् ज्यादा दु:ख, थोड़ा सुख नामक आरा आरम्भ होता है। इसलिए इस काल का नाम दु:खमा-सुषमा काल पड़ा। शरीर का परिमाण, शुभ-पुद्गल, कल्पवृक्षों का प्रभाव. मनुष्य का बल, आदि क्रमशः घटते ही जाते हैं। इस काल में देहमान