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________________ 172 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण भोजन लेते हैं। उन्हें न रोग होता है, न ही परिश्रम करते हैं, न ही मलमूत्रादि की बाधा होती है, न उन्हें कोई मानसिक पीड़ा होती है, न पसीना आता है, न ही अकाल मृत्यु होती है। वे सुख शान्ति से अपना समय व्यतीत करते हैं। 29 स्त्रियाँ भी इतनी ही आयु की धारक होती हैं। स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान ही सौम्य और शोभायमान होती हैं। स्त्रियाँ अपने पुरुषों में, पुरुष अपनी स्त्रियों में ही अनुरक्त रहते हैं। वे जीवनपर्यन्त अपने सुख भोगों में लीन रहते हैं।130 इस काल की स्त्रियों का रूप देवों के समान सुन्दर होता है। वाणी मीठी होती है।।3। किसी भी वस्तु की इच्छा होने पर जैसे-भोजन, आभूषण, वस्त्र, रहने के लिए घर, मनोरंजन के साधन, बाजे, सुगन्धित पदार्थ, माला आदि समस्त भोगोपभोग की सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती है। 32 वे कल्पवृक्ष पुण्यात्मा पुरुषों को मनवांछित फल देते हैं। वे कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते हैं 1. मद्याङ्ग 2. तुर्याङ्ग 3. विभूषाङ्ग 4. स्रगङ्ग (माल्याङ्ग) 5. ज्योतिरङ्ग 6. दीपाङ्ग 7. गृहाङ्ग 8. भोजनाङ्ग 9. पात्राङ्ग 10. वस्त्राङ्ग। ये सभी अपने-अपने नाम के अनुसार ही कार्य करते हैं।।33 जीवन-पर्यन्त सुखों का आनन्द लेकर अन्तिम समय क्षण में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। पुरुष को जम्हाई आती है, स्त्री को छींक आती है साथ ही प्राण छोड़ जाते हैं। पहले काल के लोक स्वभाव से कोमल परिणामी होते हैं इसलिए वे मरकर स्वर्ग गति में ही जाते हैं। इसके अलावा अन्य किसी गति में नहीं। पहला काल समाप्त हुआ।134 (ख) सुषमाकाल का स्वरूप - सुषमा काल में लोगों को सुख ही सुख था। दुःख का नाम मात्र भी नहीं था। इस काल में सुख की प्रधानता होने से इस काल का नाम सुषमा पड़ा। सुषमा काल में कल्पवृक्ष का प्रभाव कम होना आरम्भ हो जाता है और मनुष्यों के शरीर का बल, आयु तथा शरीर की ऊँचाई आदि सभी घटने लग जाती है। इस काल का प्रमाण तीन कोड़ा-कोड़ी सागर था।135 उस समय इस भारतवर्ष में कल्पवृक्षों के द्वारा उत्कृष्ट विभूति को विस्तृत करती हुई मध्यम भोगभूमि की अवस्था प्रचलित हुई। इस काल के मनुष्यों की कान्ति देवता के समान होती है। उसकी आयु दो पल्य की थी। शरीर का परिमाण चार हजार धनुष ऊँचा था। उनकी सभी चेष्टाएँ शुभ थीं।136 वे दो दिन पश्चात् कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए बहेड़े के समान मनवांछित उत्तम अन्न ग्रहण करते हैं। जब द्वितीय काल समाप्त हो जाता है तो कल्पवृक्ष तथा मनुष्यों के शरीर का बल, आयु आदि सभी धीरे-धीरे घटने लग जाते हैं। जघन्य भोग-भूमि की अवस्था प्रचलित होने लगती है।।37
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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