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आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श
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लोकाकाश से भरा हुआ है। तात्पर्य यह है कि कालद्रव्य का एक-एक परमाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित है।।।। उस काल द्रव्य में अनन्त पदार्थों के परिणमन कराने की सामर्थ्य है अतः वह स्वयं असंख्यात होकर भी अनन्त पदार्थों के परिणमन में सहकारी कारण होता है। जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में कालद्रव्य सहकारी कारण है। संसार के समस्त पदार्थ अपने-अपने गुण-पर्यायों द्वारा स्वयमेव ही परिणमन को प्राप्त होते रहते हैं और काल द्रव्य उनके उस परिणमन में मात्र सहकारी कारण होता है जबकि पदार्थों का परिणमन अपने-अपने गुणपर्याय रूप होता है तब अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि वे सब पदार्थ सर्वदा पृथक्-पृथक् रहते हैं अर्थात् अपना स्वरूप छोड़कर परस्पर में मिलते नहीं हैं।। 12 __ वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।113
..णिजन्त "वर्ता" धातु से कर्म या भाव में "युट" प्रत्यय के करने पर स्त्रीलिङ्ग में वर्तना शब्द बनता है। जिसकी व्युत्पत्ति "वर्त्यते" या "वर्त्तनामात्रम्" होती है। यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है।
काल को अनन्त समय वाला कहा गया है।।14 जो जीवादि द्रव्यों के परिणमन में सहायक है, वह काल हैं।।15
काल की निरुक्त्यर्थ करते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा क्रियावान् द्रव्य कल्यते, क्षिप्यते, प्रेर्यते अर्थात् प्रेरित किये जाते हैं वह काल नामक द्रव्य हैं।।16
काल के भेद
कुछ आचार्यों की मान्यता है कि काल भी द्रव्य है।17 काल अनन्त समय वाला है।118
इस मुख्य काल के दो भेद होते हैं - (क) व्यवहार काल (ख) निश्चय काल।
(क) व्यवहार काल - जो घड़ी, घण्टा आदि व्यवहार काल है। वह व्यवहार काल मुख्य काल से सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है वह उसी के आश्रय से उत्पन्न हुआ उसी की पर्याय ही है। यह छोटा है, यह बड़ा है आदि बातों से