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________________ 170 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण व्यवहार काल स्पष्ट होता है। व्यवहारकाल वर्तना लक्षणरूप निश्चयकाल द्रव्य के द्वारा ही प्रवर्तित होता है और वह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर संसार का व्यवहार चलाने के लिए समर्थ है अथवा कल्पित किया जाता है। यह व्यवहारकाल समय, अवधि, उच्छवास, नाड़ी आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। यह व्यवहारकाल सूर्यादि ज्योतिश्चक्र के घूमने से ही प्रकट होता है। यदि भव, आयु, काय और शरीर आदि की स्थिति का समय जोड़ा जाये तो वह अनन्त समय रूप होता है। उसका परिवर्तन भी अनन्त प्रकार से होता है।119 (ख) निश्चय काल - लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान एक दूसरे से असंपृक्त होकर रहने वाले जो असंख्यात कालाणु हैं उन्हें निश्चयकाल कहते हैं। व्यवहार काल से ही निश्चयकाल का निर्णय होता है, क्योंकि मुख्य पदार्थ के रहते हुए ही वालीक आदि गौण पदार्थों की प्रतीति होती है। यदि मुख्य काल द्रव्य नहीं होता तो व्यवहार काल भी नहीं होता। सूर्योदय और सूर्यास्त आदि के द्वारा दिन-रात, महीना आदि का ज्ञान प्राप्त कर व्यवहार काल को समझ लेते हैं। परन्तु अमूर्तिक निश्चयकाल के समझने में हमें कठिनाई होती है। इसलिए आचार्यों ने व्यवहारकाल के द्वारा निश्चयकाल को समझने का आदेश दिया है। 20 . निश्चयकाल समय के रूप में अनन्त है। इसी कारण सूत्र में काल को अनन्त समय वाला कहा है|21 और आगमों में भी यही बात कही गई है। (क) व्यवहारकाल के भेद - व्यवहारकाल के दो भेद हैं1. उत्सर्पिणी काल 2. अवसर्पिणी काल। . 1. उत्सर्पिणी काल - जिस काल में मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का परिमाण क्रम-क्रम से बढ़ता जाये उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं।122 2. अवसर्पिणी काल - जिस काल में मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का परिमाण क्रम-क्रम से घटते जायें उसे अवसर्पिणी कहते हैं। उत्सर्पिणी काल का प्रमाण दस क्रोड़ा क्रोड़ी सागर है तथा अवसर्पिणी काल का प्रमाण भी इतना ही है। इन दोनों को मिलाकर बीस क्रोड़ा क्रोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। इन दोनों के छह-छह भेद होते हैं -
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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