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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
पुण्य पाप कहलाने लगते हैं। कर्मों के फल देने से पूर्व स्थिति का नाम बन्ध है। कर्मों के फल देने से पूर्व स्थिति का नाम बन्ध है। कर्मों के अनुदय काल बन्ध हैं, उदय काल पुण्य पाप है।
आदिपुराण में बन्ध के मुख्य पाँच हेतु बताये गये हैं, इनके अवान्तर भेद भी अनेक हैं। बन्ध हेतुओं के विषय में तीन मान्यताएँ उपलब्ध होती हैं -
1. कषाय और योग - यह बन्ध के दो हेतु हैं। 2. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग बन्ध के चार हेतु हैं। 3. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग यह बन्ध के पाँच हेतु
इन तीनों मान्यताओं में संख्या भेद तो है किन्तु तात्त्विक भेद नहीं है, क्योंकि जहाँ कषाय और योग यह दो बन्ध हेतु माने गये हैं, वहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद का "कषाय" में अन्तर्भाव कर दिया गया है और चार बन्ध हेतु मान्यता में कषाय में प्रमाद का अन्तर्भाव कर दिया गया है।
यद्यपि ये तीनों मान्यताएँ या परम्पराएँ प्रामाणिक हैं, वस्तु तथ्य का सही ज्ञान कराती है किन्तु प्रथम परम्परा अति संक्षिप्त है और दूसरी संक्षिप्त। तीसरी परम्परा में पाँच हेतु बताये गये हैं।
इन सभी बन्ध हेतुओं में मिथ्यात्व सभी का मूलाधार है। अनादि काल से यही जीव को अनन्त संसार में परिभ्रमण करा रहा है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले इसी को समाप्त करना अनिवार्य है। पाँचों बन्धहेतु क्रम से हैं। यदि पहला मिथ्यात्व बन्ध हेतु होगा तो शेष आगे के चारों बन्धहेतु भी अवश्य होंगे।
जिस क्रम से यह बन्ध हेतु लिखे गये हैं उसी क्रम से छूटते हैं। ऐसा नहीं है कि कषाय अथवा प्रमाद बन्धहेतु तो छूट जाए, किन्तु मिथ्यात्व अथवा अविरति बन्ध हेतु बना रहे, तो कर्मबन्धन कराता रहे।
काल और उसके भेदोपभेद
काल तत्त्व का लक्षण
वर्त्तना लक्षण वाला काल है। यह काल द्रव्य अनादि निधन है। जो द्रव्यों की पर्यायों के बदलने में सहायक हो उसे वर्त्तना कहते हैं। यह काल द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु के बराबर है और असंख्यात होने के कारण समस्त