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आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श
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माया, अविद्या, प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्त दर्शन में पाये जाते हैं। इनका मूल अर्थ करीब वही है, जिसे जैन दर्शन में भाव कर्म कहते हैं। " अपूर्व " शब्द मीमांसा दर्शन में मिलता है। "वासना" शब्द बौद्ध दर्शन में प्रसिद्ध है। परन्तु योगदर्शन में भी उसका प्रयोग किया जाता है। आशय शब्द विशेष कर योग तथा सांख्यदर्शन में मिलता है। धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार इन शब्दों का प्रयोग और दर्शनों में भी पाया जाता है, परन्तु विशेषकर न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में। दैव, भाग्य, पुण्य, पाप आदि कई ऐसे शब्द हैं, जो सब दर्शनों के लिये साधारण से हैं। जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म मानते हैं उनको पुनर्जन्म की सिद्धि उत्पत्ति के लिये कर्म को मानना ही पड़ता है। चाहे उन दर्शनों की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के कारण या चेतन के स्वरूप में मतभेद होने के कारण कर्म का स्वरूप थोड़ा बहुत जुदा जुदा जानना पड़े, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि सभी आत्मवादियों ने माया आदि को उपर्युक्त किसी न किसी नाम से कर्म को अंगीकार किया ही है।
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आत्मा के साथ कर्म- पुद्गलों का जुड़ने का क्रम चलता ही रहता है। आत्मा के साथ पुद्गलों का यह मेल (बन्ध) अविच्छेद्य रूप में हो जाता है। जैसे दूध और पानी दो पृथक्-पृथक् पदार्थों को मिलाया जाए तो दोनों घुल मिलकर एकाकर हो जाते हैं। उसी प्रकार आत्मा और पुद्गल पृथक् होते हुए भी एक-दूसरे में उनका समाहार हो जाता है, पुद्गल आत्मा में रचपच जाता है, जैसे तप्त लोहखण्ड में अग्नि कण-कण में व्याप्त हो जाती है।
समस्त लोक में पुद्गल वर्गणाएँ भरी हैं। इनके कई प्रकार हैं। उनमें से कर्म-योग्य पुद्गल वर्गणाओं का आत्मा के साथ बन्ध के रूप में सम्बन्ध होता है। यह बन्ध कषाय सहित जीव को होता है।
कषाय से अनुरंजित आत्मा के परिणाम जब प्रकम्पित स्पन्दित होते हैं तो उनमें एक ऐसी विशेष प्रकार की आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो कर्म-वर्गणाओं को आकर्षित कर लेती है और वे वर्गणाएँ आत्मा के साथ चिपक जाती है, यही जीव के साथ कर्मवर्गणा का मिलन कर्मबन्ध है।
द्रव्य का द्रव्य के साथ तथा द्रव्य और भाव का क्रम से जो संयोग और समवाय है, वही बन्ध कहलाता है। स्पष्ट है कि पदार्थ की पदार्थ के साथ भाव के साथ संयोग की स्थिति को बन्ध कहा गया है।
बन्ध तत्त्व शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। शुभ बन्ध पुण्य और अशुभ बन्ध पाप है। जब तक कर्म उदय में नहीं आते अर्थात् अपना फल नहीं देते, तब तक वे सत्ता में रहते हैं और जब कर्म फल देने लगते हैं, तब