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________________ 166 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 2. स्थिति बन्ध स्थिति बन्ध अर्थात् कर्मों ने जीव को कितने समय के लिए बाँधा है। कर्मों में जितने काल तक जीव के साथ रहने की शक्ति उत्पन्न होती है, उसे कर्म स्थिति कहते हैं। जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध किसी निश्चित अवधि तक होता है। इस काल मर्यादा को स्थिति बन्ध कहा जाता है।108 3. अनुभाग बन्ध अनुभाग अर्थात् (कर्मों ने जीव को कितनी दृढ़ता से बाँधा है) कर्मों की फलदान शक्ति को अनुभाग बन्ध कहा जाता है। प्रत्येक कर्म की फलदान शक्ति अपने अपने स्वभाव के अनुरूप होती है। आत्मा के साथ जुड़े हुए पुद्गलों में फल देने की शक्ति न्यूनाधिक रूप में रहा करती है, जो अनुभाग बन्ध है। इस प्रकार तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति का नाम ही अनुभाग है।109 इसको रस बन्ध भी कहते हैं। 4. प्रदेश बन्ध जीव के कितने हिस्से या प्रदेश को कर्मों ने बाँध रखा है। उनकी तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति का नाम अनुभाग है, तथा आत्मप्रदेशों के साथ कितने कर्म परमाणु का बन्ध हुआ, उसे प्रदेश बन्ध कहते हैं।110 समीक्षा भारतीय दार्शनिक चिन्तन में कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सुख-दुःख एवं अन्य प्रकार के सांसारिक वैचित्र्य के कारण की खोज करते हुए भारतीय चिन्तकों ने कर्म सिद्धान्त का अन्वेषण किया। जीव अनादि काल से कर्मवश हो कर विविध भवों में भ्रमण कर रहा है। जन्म मरण का मूल कर्म है। जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है। एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता। कर्मवाद किसी न किसी रूप में भारत की समस्त दार्शनिक एवं नैतिक विचारधाराओं में विद्यमान है तथापि इसका जो सुविकसित रूप जैन परम्परा में उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। कर्मवाद जैन विचारधारा एवं आचार परम्परा का अविच्छेद्य अंग है। जैन दर्शन में जिस अर्थ के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त होता है, उस अर्थ के अथवा उससे कुछ मिलते-जुलते अर्थ के लिये जैनेत्तर दर्शनों में ये शब्द मिलते हैं-माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, देव, भाग्य आदि।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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