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________________ 164 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण सकता है। वह भोगान्तराय कर्म है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाएँ, उन्हें भोग कहते हैं। जैसे कि - फल, जल, भोजन आदि।4 (घ) उपभोगान्तराय कर्म - उपभोग की सामग्री अवस्थित हो, विरति रहित हो, तथापि इस कर्म के उदय से जीव उपभोग्य पदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता। वह उपभोगान्तराय कर्म है। जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएँ, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे कि - मकान, वस्त्राभूषण आदि। (ङ) वीर्यान्तराय कर्म - वीर्य का अर्थ है - सामर्थ्य। बलवान्, रोगरहित एवं युवा व्यक्ति भी इस कर्म के उदय से सत्त्वहीन की भान्ति प्रवृत्ति करता है और साधारण से काम को भी ठीक तरह से नहीं कर पाता। वह वीर्यान्तराय कर्म है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह द्रव्य कर्म मुख्यतः आठ प्रकार का होता है और इन्हीं आठों के आगे चलकर भेदोपभेद बनते जाते हैं जो कि एक सौ अड़तालीस (148) पर सिमट जाते हैं।7 कर्मबन्ध और उसके प्रकार कर्मबन्ध दो पदार्थों (आत्मा और कर्म पुद्गल) के विशिष्ट सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। बध्यते येन बन्धनमायं वा बन्धः अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा बांधा जाए, परतन्त्र किया जाए, उसे बन्ध कहते हैं। यह जीव की सांसारिक दशा होती है। जैन दर्शन में कषाययुक्त होने के कारण कर्म के अनुरूप पुद्गलों को जब ग्रहण करता है, तब इस बंध संज्ञा से अभिहित किया जाता है। स्निग्धत्व तथा रूक्षत्व से बन्ध होता है।99 अर्थात् ये पुद्गल के स्पर्श गुण की पर्यायें हैं, जो पुद्गल के परस्पर बन्ध में प्रयोजक मानी गई है। पुद्गल में ऐसी स्वाभाविक योग्यता है जिससे वह इन गुणों के कारण बन्ध को प्राप्त होता है। जीव को जिस प्रकार प्रत्येक समय के बन्ध हेतु पृथक्-पृथक् निमित्त अपेक्षित रहते हुए भी वह इन गुणों के कारण परस्पर बन्ध को प्राप्त होता है। निश्चय नय से अध्यवसाय ही बन्ध का कारण है। 100 अज्ञानी व्यक्ति का "मैं सुखी या दुःखी रहता हूँ", "मैं हिंसा या अहिंसा करता हूँ" ऐसा भाव ही अध्यवसाय है 01, जो बन्ध का कारण है।102
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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