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आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श
163 प्रभाव से जीव को ऊँच और नीच पद की उपलब्धि होती है। गोत्र कर्म के दो भेद होते हैं87 --
(क) उच्च गोत्र (ख) नीच गोत्र।
(क) उच्च गोत्र - इस कर्म के उदय से जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है। धर्म और नीति की रक्षा के सम्बन्ध से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है, वह उच्चकुल है - जैसे - इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश इत्यादि।88
(ख) नीच गोत्र - इस कर्म से जीव नीच कुल में जन्म लेता है। अधर्म और अनीति के पालन से जिस कुल में चिरकाल से कुख्याति प्राप्त की है, वह नीच कुल कहा जाता है। जैसे कि बाधित कुल, मद्यविक्रेत कुल, चौर कुल आदि।89
8. अन्तराय कर्म
जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य (पराक्रम) में विघ्न उत्पन्न हो उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। अन्तराय कर्म राज-भण्डारी के समान होता है। जैसे राजा ने द्वार पर आये हुए किसी याचक को कुछ दान देने की इच्छा से भण्डारी के नाम पत्र लिखकर याचक को तो दिया, परन्तु याचक को भण्डारी ने किसी कारण से धन नहीं दिया या भण्डारी ही न मिला, भण्डारी का न मिलना, या किसी कारण धन न देना, याचक के लिए अन्तराय कर्म है।90 अन्तराय कर्म के पाँच भेद होते हैं -
(क) दानान्तराय कर्म (ख) लाभान्तराय कर्म (ग) भोगान्तराय कर्म (घ) उपभोगान्तराय कर्म (ङ) वीर्यान्तराय कर्म। (क) दानान्तराय कर्म – दान की वस्तुएँ मौजूद हों, गुणवान् पात्र आया
हो, दान का फल जानता हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव को
दान करने का उत्साह नहीं होता। वह दानान्तराय कर्म है।92 (ख) लाभान्तराय कर्म - दाता उदार हो, दान की वस्तुएँ स्थित हों,
याचना में कुशलता हो, तो भी इस कर्म के उदय से लाभ नहीं हो
पाता। वह लाभान्तराय कर्म है। (ग) भोगान्तराय कर्म - भोग के साधन उपस्थित हों, वैराग्य न हों, तो
भी इस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर