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________________ 162 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण स्वभाव कारागृह के समान है। जैसे अपराधी अपराध के अनुसार अमुक काल तक कारागृह में डाला जाता है और अपराधी उससे छुटकारा पाने की इच्छा भी करता है, किन्तु अवधि पूरी हुए बिना निकल नहीं पाता है, उसे निश्चित समय तक रहना पड़ता है। वैसे ही आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि तक नरकादि चारों गतियों में रहना पड़ता है। जब बाँधी हुई आयु भोग लेता है, तभी उसे-उस शरीर से छुटकारा मिलता है।80 आयुष्य कर्म के चार भेद हैं - (क) नरकायु (ख) तिर्यंचायु (ग) मनुष्यायु (घ) देवायु। (क) नरकायु - जिस कर्म के उदय से जीव को नरक गति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है उसे नरकायु कहते हैं। (ख) तिर्यंचायु - जिस कर्म के उदय को तिर्यंच गति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है, उसे तिर्यञ्चायु कहते हैं। (ग) मनुष्यायु - जिस कर्म के उदय से जीव को मनुष्य गति में जन्म लेना पड़ता है वह मनुष्यायु है। (घ) देवायु - जिस कर्म के निमित्त से जीव को देवगति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है उसे देवायु कहते हैं।82 6. नामकर्म जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है अथवा जिस कर्म से आत्मा गति आदि नाना पर्यायों का अनुभव करे अथवा विभिन्न जाति आदि प्राप्त होती है, विभिन्न शरीर आदि बने, उसे नामकर्म कहते हैं।83 मनुष्य गति, देवगति, आदि इसकी कुल मिलाकर प्रकृतियाँ एक सौ तीन हो जाती हैं।84 श्रेष्ठ साधना करने वाले साधक का शरीर अत्यन्त उत्तम होता है। नामकर्म के प्रभाव से दिव्य शरीर मिलता है। भोजन न खाने पर भी शरीर को क्षणिक भी कमजोरी महसूस नहीं होती।85 7. गोत्रकर्म जिस कर्म के उदय से जीव ऊँच और नीच कुल में जन्म लेता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं।86 यह कर्म का स्वभाव कुलाल (कुम्हार) के समान है। जैसे - कुलाल छोटे तथा बड़े भाजनों को बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म के
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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