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________________ आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श 3. मिश्र मोहनीय जिस कर्म के उदय काल में यथार्थता की रुचि या अरुचि न होकर दोलायमान स्थिति रहे, उसे मिश्र मोहनीय कहते हैं। 69 - 161 (ख) चारित्र मोहनीय जिस कर्म के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप में रमण करता है, उसे चारित्र कहते हैं। यह आत्मा का गुण है। आत्मा के इस चारित्र गुण को घात करने वाले कर्म को चारित्र मोहनीय कहते हैं। 70 चारित्र मोहनीय कर्म के नष्ट होने पर साधक वीतराग पद प्राप्त कर लेते हैं और महान् तेजस्वी होते हैं। 71 चारित्र मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद होते हैं 72 कषाय और नोकषाय । कषाय के सोलह और नोकषाय के नौ भेद होकर कुल पच्चीस भेद हो जाते हैं। 73 दर्शनमोहनीय के तीन भेद मिलाकर कुल अट्ठाइस भेद, मोहनीय कर्म के हो जाते हैं। -- साधक मोहनीय कर्म को जीतने के लिए तत्पर हो जाता है। जिस प्रकार शत्रु को जीतने के लिए उसके सेनापति को जीतना जरूरी है उसी प्रकार अष्ट कर्मों में से मोहरूपी सेनापति को जीतना जरूरी है। 74 सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने पर ही जीव को अत्यन्त विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है। 75 मोक्ष प्राप्ति के लिये मोहनीय कर्म के विजेता बनना अति आवश्यक है। 76 अष्ट कर्मों में अगर मोहनीय कर्म को जीत लिया तो बाकी सात कर्म को क्षय करना आसान हो जाता है। जीव में अत्यन्त सूक्ष्म लोभ भी नहीं होना चाहिए नहीं तो सम्पूर्ण मोहनीय कर्म क्षय नहीं होता। अगर मोहनीय कर्म को जीत लिया तो समझो समस्त कर्मों को जीत लिया। 77 5. आयुष्य कर्म जिस कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक रूप से जीता अर्थात् जीवित रहता है और आयु के क्षय होने पर उन-उन रूपों का त्याग करता है या मर जाता है उसे आयुष्य कर्म कहते हैं। 78 यह कर्म जीव को किसी एक पर्याय में रोके रखता है, दूसरे शब्दों में इस कर्म के कारण भव धारण होता है, इसी की अपेक्षा लोक में कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति जीवित है। उसे आयुष्य कर्म कहते हैं। आयुष्य कर्म का
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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