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________________ 160 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण असातावेदनीय कर्म कहते हैं। शहद को चाटते समय उस धार से जीभ कटने के समान असातावेदनीय कर्म है। परन्तु केवलज्ञानी महापुरुषों को असातावेदनीय अर्थात् उन्हें भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि किसी भी प्रकार का दुःख नहीं होता। वे केवलाहार नहीं करते।60 दिगम्बर परम्परा में केवली के कवलाहार का निषेध है। श्वेताम्बर परम्परा में केवली के कवलाहार का विधान है। 4. मोहनीय कर्म जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण का और चारित्र गुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से जीव में स्व और पर का विवेक नहीं रहता एवं हिताहित को पहचानने और परखने की बुद्धि नहीं होती है।6। जीव मोहनीय कर्म के उपशम होने पर ही जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा एवं रुचि नहीं होने देता।62 मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर जीव को अत्यन्त सुख की अनुभूति होती है।63 मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं - (क) दर्शनमोहनीय (ख) चारित्रमोहनीय। (क) दर्शनमोहनीय जो पदार्थ जैसे है, उसे वैसे ही समझना यह दर्शन है, अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक् दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का गुण है। इसके घातककर्म को दर्शनमोहनीय कहा जाता है।65 जीवात्मा अनादिकाल से मिथ्यात्वरूपी कीचड़ में फंसा हुआ है, उसे सबसे पहले दर्शनमोहनीय कर्म को उपशम करके फिर औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।66 दर्शनमोहनीय कर्म के नष्ट होने पर जीव को क्षायिक-सम्यक्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है।67 दर्शनमोहनीय के तीन भेद होते हैं68 - 1. सम्यक्त्व मोहनीय 2. मिथ्यात्व मोहनीय; 3. मिश्र मोहनीय। 1. सम्यक्त्व मोहनीय - जिस कर्म का उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त होकर भी औपशमिक या क्षायिक भाव वाली तत्त्व रुचि का प्रतिबन्ध करता है, वह सम्यक्त्व मोहनीय है। 2. मिथ्यात्व मोहनीय - जिस कर्म के उदय से तत्त्वों के यथार्थ रूप की रुचि न हो वह मिथ्यात्व मोहनीय है।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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