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________________ आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श 159 लेता हैं।50 तात्पर्य यह है कि जैसे बादल-दल सूर्य के प्रकाश को आच्छादित कर लेता है अथवा जैसे नेत्रों की ज्योति को वस्त्रादि पदार्थ आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार जिन कर्माणुओं या कर्म वर्गणाओं के द्वारा इस जीवात्मा का ज्ञान आवृत्त हुआ हो, उन कर्माणुओं का नाम ज्ञानावरणीय कर्म है। ज्ञानावरण का नाश होने पर आत्मा अनन्त चक्षु, अनन्त ज्ञानी हो जाती है। इसी के आगे क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा से मति, श्रुत आदि भेद से ज्ञान के पाँच भेद हो जाते हैं।52 2. दर्शनावरणीय कर्म जिस कर्म के द्वारा आत्मा के दर्शन गुण अर्थात् सामान्य बोध आवृत हो, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है।53 दर्शनावरण कर्म का स्वभाव परदे जैसा है। बीच में पर्दा पड़ा होने से मनुष्य दूसरी तरफ की चीज नहीं देख पाता, इसी प्रकार यह कर्म देखने में बाधक बनता है। जीव के दर्शनावरण कर्म का क्षय हो जाने से वह समस्त संसार को देखने वाला होता है।54 इसके भी आगे चलकर चक्षु, अचक्षु, अवधि आदि प्रकार से नौ भेद हो जाते हैं।55 3. वेदनीय कर्म ___ जो कर्म इन्द्रियों के विषयों का अनुभव अर्थात् वेदन करावे, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। अर्थात् जिस कर्म के द्वारा जीवात्मा को सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वह वेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म का स्वभाव तलवार की धार लगे हुए शहद को चाटने के समान है।56 इस वेदनीय कर्म के दो भेद हैं7 - (क) सातावेदनीय (ख) असातावेदनीय। (क) सातावेदनीय कर्म जिस कर्म के उदय से आत्मा को विषय सम्बन्धी सुख का अनुभव होता है, उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं। तलवार की धार में लगे हुए शहद को चाटने के समान सुख मिलता है, वह सातावेदनीय है। (ख) असातावेदनीय कर्म जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति से अथवा प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दु:ख का अनुभव होता है उसे
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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